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रेलयात्रा संस्मरण : मेरी पहली गुजरात यात्रा — राजेश कुमार ‘राज’

 

बात नवम्बर, १९८४ की है. ३१ अक्टूबर को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या हुए अभी मुश्किल से १२ दिन गुजरे होंगे. देश सिख विरोधी हिंसा की आग में झुलस रहा था. जहाँ-तहां से सिखों के नरसंहार की ख़बरें आ रही थीं. ऐसे में मुझे अपनी पहली पोस्टिंग पर अहमदाबाद (गुजरात) रिपोर्ट करना था. एक केन्द्रीय पुलिस संगठन का अधिकारी होने के नाते मेरा मनोबल बहुत ऊँचा था. ३१ अक्टूबर को अपनी ट्रेनिंग, जिसमे बेसिक माउंटेनियरिंग कोर्स भी शामिल था, पूरी करके मैं दिल्ली में अपने विभागीय हॉस्टल में ठहरा हुआ था. बाहर के दृश्य बड़े भयावह थे पर पता नहीं क्यों मुझे बिलकुल भी भय नहीं लग रहा था. अहमदाबाद के लिए ट्रेन पकड़ने से पहले मैंने एक चक्कर अपने पैतृक शहर का भी लगा लिया था. हर कोई हैरान- परेशान था कि दंगों के दौरान मैं कैसे यात्रा कर पाया.

खैर मुझे १३ नवम्बर १९८४ के रोज पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन से अहमदाबाद एक्सप्रेस नामक ट्रेन पकड़नी थी. यहाँ मैं बताता चलूँ कि उस समय दिल्ली से अहमदाबाद मीटर गेज की लाइन से जुड़ा था. ब्रॉड गेज की लाइन सीधे अहमदाबाद कनेक्ट नहीं करती थी. वड़ोदरा उतर कर अहमदाबाद के लिए दूसरी ट्रेन पकड़नी पड़ती थी. मेरा रिजर्वेशन हो चुका था. उस समय रिजर्वेशन भी मैन्युअल ही होता था और व्यवस्था भी बहुत अधिक सुचारू नहीं थी. मैं नियत समय से पहले ही रेलवे स्टेशन पहुँच गया. ट्रेन प्लेटफार्म पर लगी तो मैंने अपने डिब्बे की तरफ रुख किया. अपना डिब्बा देख कर मेरी निराशा का कोई ठिकाना ना रहा क्योंकि वह एक जनरल बोगी थी जिसमे मुझे बैठने भर का रिजर्वेशन मिला था. मैं अपने डिब्बे में घुस कर अपनी सीट पर काबिज हो गया क्योंकि जनरल बोगी होने के कारण अनारक्षित यात्री भी उसी में घुसे चले आ रहे थे. ट्रेन चलने से पहले डिब्बा खचाखच भर गया था. डिब्बे के फर्श पर पैर रखने की भी जगह नहीं थी. बैठ तो गया था लेकिन सोच रहा था की लघुशंका आदि के लिए बाथरूम तक कैसे जाऊंगा.

ट्रेन ने अपने नियत समय पर पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन छोड़ दिया और मंथर गति से अहमदाबाद की ओर बढ़ चली. लगभग दो घंटे पश्चात वह समय आ ही गया जब मुझे बाथरूम जाने की आवश्यकता महसूस हुई. अब करूँ तो क्या करूँ कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था. फिर मुझे याद आया कि मैं तो एक प्रशिक्षित पर्वतारोही था. मुझे तो अपनी अंगुलियां और पैरों के पंजे भर टेकने की जगह चाहिए थी. फिर क्या था मैं उठा और जो भी छोटा-मोटा उभार या पकड़ मिली उन पर अपनी अंगुलियों और पैरों के पंजों की पकड़ बनता हुआ बिना डिब्बे के फर्श पर पैर रखे मैं बाथरूम तक पहुँच गया और निवृत्त होकर उसी प्रकार से वापस आ कर अपनी सीट पर बैठ भी गया. सहयात्री मुझे बड़े कौतुहल से देख रहे थे. यात्रियों में अधिकांश गुजराती थे जो मुझे देख कर बोल रहे थे “आ वान्दरो क्यां थी आवी गयो छे (यह बन्दर कहाँ से आ गया है).” कुछ लड़कियां मुझे बड़े मनमोहक अंदाज में देख रही थीं जैसे मैं कोई सुपरमैन था. अहमदाबाद आने तक मैं इसी प्रकार डिब्बे के बाथरूम तक आता-जाता रहा और लोग मुझे देख कर खिलखिलाते रहे. उस समय मैं अपनी भरपूर जवानी में था. अतः अपने शारीरिक बल और अपनी पर्वतारोहण तथा पुलिस ट्रेनिंग की बदौलत एक क्षुद्र सी किन्तु कठिन परिस्थिति से निपटने में कामयाब रहा.

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