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संस्मरण: गाँव की ओर — आत्मा को छू लेने वाली एक यात्रा — अनीता चतुर्वेदी

 

कुछ यात्राएँ सिर्फ भौगोलिक नहीं होतीं – वे हृदय में उतरती हैं, आत्मा की गहराइयों को छूती हैं और जीवन के रंगों को नया अर्थ देती हैं। मेरी ऐसी ही एक यात्रा तब हुई जब मैं अपनी प्रिय सहेली के साथ उसकी बुआ की शादी में उसके गाँव गई।

“बुआ की शादी है, चलो मेरे गाँव चलते हैं,” — जब उसने यह कहा, तो मेरे भीतर शहर की व्यस्त दिनचर्या से एक पल को रुककर सोचने की ललक जगी। थोड़ा संकोच था, मगर उस संकोच के पीछे एक अनजाना, मीठा उत्साह धीरे-धीरे आकार लेने लगा।

हम ट्रेन से उतरे, और फिर ऑटो की धीमी मगर दिल छू लेने वाली गति में गाँव की ओर बढ़े। जैसे ही गाँव की पगडंडियों ने हमारा स्वागत किया, मिट्टी की सौंधी खुशबू ने मेरे शहरी अस्तित्व पर एक कोमल परत बिछा दी। चारों ओर सरसों के पीले फूल लहराते थे, मानो गाँव ने खुद पीले घाघरे पहनकर हमारे स्वागत में नृत्य रचा हो।

सहेली ने मुस्कराकर कहा, “ये है मेरा गाँव – सच्चा, सीधा और बहुत प्यारा।” वह सच कह रही थी। यह गाँव किताबों से निकल कर मेरे सामने आ गया था।

गाँव के घरों में ईंटों और गारे से ज़्यादा अपनापन जुड़ा होता है। आँगन में तुलसी का चौरा, कोनों में बैठी स्त्रियाँ, कहीं पापड़ सुखाते हाथ, कहीं गीत बुनते होठ – हर दृश्य में सादगी की भव्यता थी। उसकी दादी ने जब मुझे गले लगाया, तो वो आलिंगन किसी अपनाने के दस्तावेज़ की तरह था – बिना किसी शर्त, बिना किसी पहचान के।

शादी की तैयारियाँ वहाँ कोई अलग जिम्मेदारी नहीं थीं – वे गाँव का उत्सव बन चुकी थीं। स्त्रियाँ गीतों में घर भर रहीं थीं – “बन्ना रे मोरे भैया को भेजो…” की तान में एक अदृश्य डोर बंधी थी, जो सबको जोड़ रही थी – मैं भी उसी डोर में बंध गई।

मैंने देखा – कैसे हर कोई कुछ न कुछ कर रहा है: कोई मंडप सजा रहा है, तो कोई आम के पत्तों से तोरण बांध रहा है। छोटे बच्चे मिट्टी में खेलते हुए भी शादी के हिस्सा बन रहे थे। शहनाई की धुन में जैसे समय ठहर गया था – मधुर, स्थिर, और भावनाओं से भरा।

मेरी सहेली ने मुझे खेतों की ओर ले जाकर वो दुनिया दिखाई, जो मेरे लिए केवल चित्रों में रही थी। खेतों की हरियाली, आम्रकुंज की छाँव, तालाब पर झुकी नीम की शाखाएँ, और बकरियाँ चराते बच्चों की खिलखिलाहट – जैसे किसी पुराने लोकगीत की पंक्तियाँ मेरे सामने जी उठीं।

मैंने पहली बार मिट्टी के चूल्हे पर रोटियाँ सेंकी, अपने हाथों से दीवार पर गोबर से पुताई की, मटकी से पानी पीया और तुलसी को जल चढ़ाया। पत्तलों में खाना परोसते हुए जाना कि सेवा में भी आनंद छिपा होता है।

फिर वो रात आई – मंडप फूलों से सजा था, आसमान तारों से। अग्नि के चारों ओर सप्तपदी, मंत्रों की गूँज, और शहनाई के सुरों में सजी वो रात – मेरे लिए किसी कविता की जीवित प्रस्तुति बन गई।

विदाई के क्षण ने मुझे भीतर तक झकझोर दिया। जब दुल्हन की आँखों से आँसू बहे, तो लगा जैसे पूरा गाँव अपनी बेटी को विदा कर रहा हो। मैं भी अनायास ही भर आई, क्योंकि वहाँ केवल एक रिश्ता नहीं टूटा, एक युग बीत रहा था।

जब मैं शहर लौटी, तो मेरा चेहरा वही था, पर मन बदला हुआ था। उस यात्रा ने मेरे भीतर कुछ स्थायी छोड़ दिया – सादगी का सौंदर्य, रिश्तों की गर्माहट, और जीवन की धीमी, मगर सच्ची धुन। अब जब भी भीड़ में खो जाती हूँ, मन उसी गाँव की पगडंडियों पर लौट जाता है, जहाँ समय ठहर कर मुस्कुराता है।

अनीता चतुर्वेदी
(ग्रेटर नोएडा )

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