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बेवफ़ाई — शिखा खुराना ‘कुमुदिनी

 

चाँदनी रात थी। चाँद खिड़की से नजर आ रहा था।मैं एक कोरे पन्ने से खेल रही था।यह क्षण मुझे बहुत पाक लगता है।इस वक्त कुछ भी लिखा जा सकता है।” कागज़ पर उतारने के लिए उसका चेहरा मेरे सामने था। एक एक नक्श मैं छूकर देख सकती थी। उसकी बंद आंखों को छूते ही मेरी उंगलियां भीग गईं थीं। डबडबाती आंखों से मुझे आखिरी बार देख रहा था वो। मेरे चेहरे की सख्ती उसे समझ नहीं आ रही थी। कल तक तो सब ठीक था और हम इसी पार्क की बेंच पर बैठे सुनहरे भविष्य का सपना सजा रहे थे। आज अचानक मेरी बेरुखी से टूट रहा था वो। मैं हमेशा के लिए उससे दूर जा रही थी, वो तैयार नहीं था इसके लिए। मैं अपने स्वार्थ को बांधकर अपनी नई नौकरी के साथ अमेरिका जा रही थी। उसने मुझे रोकने के लिए एक शब्द भी ना कहा था, पर उसकी निरिह आंखों को मैं देखकर भी अनदेखा कर रही थी। और इतने वर्षों में मैं लगभग भूल चुकी थी उसे। बहुत व्यस्त जीवन था मेरा। नौकरी, परिवार, बच्चे बस इसी में सीमित रही मेरी जिंदगी। फिर आज अचानक क्या हुआ? क्या सच में कुछ हुआ था। कागज़ पर एक चिन्ह बना था मेरी क़लम से जिसकी स्याही फैल गई थी, मेरी आंख से गिरी एक बूंद से। फोन की घंटी से तंद्रा भंग हुई मेरी। उधर से मेरी बचपन की दोस्त, जो उसकी भी दोस्त थी ने उसके इंतकाल की खबर दी। उसके ना रहने के अहसास से बिलख रही हूं मैं। उसकी बेबसी उकेर रही हूं, कागज़ पर, अपनी बेवफाई से सजा रही हूं उसकी महोब्बत।
शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’ ©®
नई दिल्ली

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