भीष्म व्यथा — कविता साव

हस्तिनापुर के राजा शांतनु और गंगा के पुत्र का नाम देव व्रत था। अपने पिता की खुशी के लिए माता सत्यवती को
ये वचन देते हैं कि उनकी संतति ही हस्तिनापुर के राजसिंहासन के उत्तराधिकारी होंगे। प्रतिज्ञा लेते हैं _
“मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करूंगा।” कभी विवाह नहीं करूंगा।इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम पड़ा”भीष्म”।
पिता प्रसन्न होकर उन्हें आशीर्वाद में इच्छामृत्यु का
वरदान देते हैं।
इनकी व्यथा के कई कारणों में से मुख्य कारण था
इच्छा मृत्यु का वरदान। हस्तिनापुर के ज्येष्ठ होने के कारण
राजसिंहासन के प्रति कर्तव्यनिष्ठ और प्रतिबद्ध थे। भीष्म के महान योद्धा होने के साथ ही एक धर्मपरायण भी थे।
इस बात से अनभिज्ञ नहीं थे कि कौरव अधर्म ,अन्याय के
रास्ते पर चल रहे हैं फिर भी फिर उन्होंने कौरवों का साथ
दिया क्योंकि हस्तिनापुर की सुरक्षा को अपना परम कर्तव्य
मानते हैं।
अर्जुन के बाण से घायल बाणों की शैय्या पर लेटे भीष्म को अपनी पीड़ा नहीं बल्कि हस्तिनापुर के भविष्य
की चिंता खाए जा रही थी। असहनीय पीड़ा को सहते हुए
भीष्म पाण्डवों को धर्म और नीति का ज्ञान दे रहे थे जिससे हस्तिनापुर सुरक्षित रहे।
बाण की पीड़ा से अधिक पीड़ित इस बात से थे कि
समय ने इतना बेबस और लाचार कर दिया जो मुझे अधर्मियों के पक्ष में लाकर खड़ा कर दिया।धर्म पारायण
होते हुए भी धर्म के विरुद्ध युद्ध करना पड़ रहा है।
भीष्म की व्यथा अनंत थी।उन्होंने जीवन में बहुत
पीड़ाएं सही परन्तु अपने कर्तव्य मार्ग से विचलित नहीं
हुए।भीष्म का दूसरा नाम ही व्यथा रहा। वाणों के शैय्या
पर लेटे भीष्म को सूर्य के उत्तरायण की प्रतिक्षा थी जिससे
वो शुभ मुहूर्त में अपने प्राण का त्याग कर सके। अंततः महाभारत के महान योद्धा भीष्म ने अपने प्राण का त्याग
कर सदा के लिए अमर हो गए।
कविता साव
पश्चिम बंगाल