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चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात – अलका गर्ग,गुरुग्राम

 

यह मुहावरा बचपन से ही किसी न किसी घटना या स्थिति में सुनती आई हूँ।तब समझ में नहीं आता था कि दादी नानी माँ अक्सर हमारी बालसुलभ गतिविधियों को देख कर हँस कर ये क्या बोलती हैं।मौसी या बुआ आईं तो हम सारा दिन उनसे ही चिपके रहे।सोना खाना नहाना सब उनके साथ ..नानी और माँ के लाख बुलाने पर भी उनकी बात अनसुनी करते और बुआ की हर आज्ञा दौड़ कर पूरी करते तो दादी कहतीं ..जाने दे बुआ को फिर बताऊँगी ..
चार दिन की चाँदनी है फिर अंधेरी रात होनी है ..सर के ऊपर से गुज़र जाता कुछ समझ नही आता ।
कोई पर्व त्यौहार मेला विवाह के आते ही हमारे कदम ज़मीन पर नही पड़ते।जैसे हवा में उड़ते थे हम ..
तैयारियाँ खाने सोने का भी समय नहीं देतीं और उत्साह तो सर पर भूत बन कर सवार रहता।माँ पापा डाँटते तो बाबा रोकते ..अरे मज़े लेने दो बच्चों को चार दिन की चाँदनी है फिर अंधेरी रात होगी ..
हमें समझने से क्या मतलब बस इजाज़त मिल गई उतना ही काफ़ी है।
धीरे धीरे इसका गूढ़ अर्थ समझ आने लगा कि रात दिन की तरह जीवन चक्र भी धूमता रहता है।दुःख और सुख दोनों बारी बारी आते रहते हैं परंतु हम आगे की परवाह किए बिना सुख में डूबे रहते हैं रंगरेलियाँ मनाते हैं मौज मस्ती करते हैं।उस वक्त समय बदलने का ख़याल हमें सपने में भी नही आता।
चक्र है तो ज़रूर घूमेगा चाँदनी और अंधेरी रात तो आनी ही है।हमें चाँदनी रात की ही तरह अंधेरी रात को भी अपनाना ही होगा क्यूँकि इस से बचने का कोई उपाय तो है नही ..पर हम यदि इसके लिए स्वस्थ तन, थोड़ा धन ,और आध्यात्मिक मन की थोड़ी सी तैयारी अच्छे दिनों में ही कर लें तो ये अंधेरी रात इतनी लम्बी नही लगेगी।जीवन चार दिन की चाँदनी सामान है तो मौत की अंधेरी रात आनी ही है ।

अलका गर्ग,गुरुग्राम

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