कन्यादान — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

कन्यादान, भारतीय संस्कृति का वह भावुक और पवित्र क्षण है, जहाँ एक पिता अपनी लाडली को संजोए हुए वर्षों की स्मृतियों के साथ दूसरे कुल को सौंप देता है। यह केवल विवाह की एक रस्म नहीं, बल्कि आत्मा के स्तर पर किया गया एक त्याग है – जहाँ माता-पिता अपने जीवन की सबसे प्रिय धरोहर को सौंपते हैं।
विवाह-मंडप में जब पिता अपनी बेटी का हाथ वर के हाथों में रखता है, तो उसके भीतर एक तूफ़ान सा उठता है। आँखों में गर्व और अश्रु दोनों होते हैं। वह जानता है कि आज से उसकी बेटी अब किसी और की ज़िम्मेदारी है। यह क्षण जितना धार्मिक होता है, उतना ही भावनात्मक भी।
कन्यादान का अर्थ केवल बेटी को देना नहीं है, बल्कि अपने संस्कार, स्नेह और विश्वास को भी सौंपना है। इसमें एक माँ की ममता, पिता का विश्वास, और पूरे परिवार की भावनाएं समाहित होती हैं। यह क्षण बेटी के लिए भी कम कठिन नहीं होता – वह अपना मायका छोड़कर ससुराल की दहलीज़ पर कदम रखती है, नए जीवन की शुरुआत के साथ पुराने जीवन से विदा लेती है।
आज के समय में कन्यादान की संकल्पना को केवल परंपरा ही नहीं, एक भावनात्मक उत्तरदायित्व के रूप में देखना चाहिए। यह दान नहीं है , बल्कि सम्मान है, एक नवजीवन को सौंपने का श्रद्धा से भरा हुआ अवसर।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या ,