लेख — मुन्नी का खिलौना, चिलमन — पल्लवी राजू चौहान

चिलमन से आती छटाओं से पूरा ओसारा चमक उठा था। छोटी-सी गुड़िया लिए हुए मुन्नी बार बार उन सूरज की किरणों से आती छटाओं पर हाथ मारती। उन छटाओं की किरणों का मुन्नी के गोरे-गोरे हाथों पर उभरकर आना उसे अनजानी-सी एक खुशी दे रहा था। मुन्नी बार बार जमीन पर हथेली रखती और फिर हथेली खींच लेती। पीछे से अरुणा मुन्नी को आवाज देती हुई कहती है, “अरि….मुन्नी कब से तुझे आवाज़ दे रही हूँ, सुनाई नहीं देता।” इधर मुन्नी चिलमन से छींटक कर आती किरणों में मस्त थी। थोड़ी देर बाद अरुणा मुन्नी का हाथ पकड़कर खींचती हुई लेकर जाती है और कहती है, “कब से तुझे कह रही हूँ, नहा ले सुनती नहीं है।” अरुणा मुन्नी को नहाने के लिए स्नानागृह की ओर ले जाती है। थोड़ी देर बाद जब मुन्नी तैयार होकर आती है और वापस दौड़कर जब ओसारा में जाती है, तब तक वह खूबसूरत चिलमन से आती छटा अब बिलकुल धीमी पड़ चुकी थी, लगभग जा ही चुकी थी। हलकी हलकी सूरज की चमचमाती किरणें विलुप्त होती जा रही थी। अब मुन्नी ज़ोर ज़ोर से जमीन पर हाथ पैर पटकती रो रही थी। अरुणा चिल्लाकर बोली, “अब क्या हो गया, क्यों रो रही है?” वह बच्ची अब खेलने के लिए उन्हीं चिलमन से आनेवाली छटाओं के इंतजार में वहीं बैठ गई। अरुणा समझ गई, आखिर वह माँ थी। उसने कहा,”बेटी, यह सुंदर सुनहरी किरणों की छटाएँ कल भीआएंगी, अभी जा गुड़िया से खेल ले।”
कहने का तात्पर्य यह है कि पहले के ज़माने में हमारे खिलौने इन्हीं प्राकृतिक छटाओं से ही हमें प्राप्त होते थे। आजकल इलेक्ट्रॉनिक्स मोबाइल और विभिन्न प्रकार के महंगे खिलौने आ गए हैं।
यह सुंदर प्रकृति हमारे जीवन का अमूल्य अंग थे। हम बच्चों के यादगार पल इसी प्रकृति से जुड़े हुआ करते थे, लेकिन अब वक्त बदल चुका है।
लेखिका: पल्लवी राजू चौहान
कांदिवली, मुंबई
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