मेरे पिता – लता शर्मा तृषा

आज पिता दिवस पर शत-शत नमन, प्रणाम मेरे
जनक ने केवल पिता की ही नहीं बल्कि एक आज्ञाकारी बेटा, स्नेहिल भाई और श्रेष्ठ पिता थे उन्होने जीवन में मिली सभी जिम्मेदारियों को सहज ही निभाया है।
पांच बहन चार भाईयों में सबसे बड़े मेरे पिता ने सभीको साथ लेकर चलने वाले रहे।हम चार उनके बच्चे जिन्हें कभी किसी चीज की कमी उन्होंने होने नहीं दी चाहे कैसी भी परिस्थिति रही हमेशा हमारे जररुतों को तुरंत पूरा किए, हमारे जिद पर नाराजगी कभी नहीं जताया उन्होंने।
बड़े दाऊ के नाम से जाने जाते मेरे पिता झक सफेद धोती कुर्ता सर के बाल श्वेत माथे पर लाल तिलक और उनके होंठों पर हमेशा मंद मुस्कान, स्नेहिल बोल उनकी छवि की पहचान थे।
कैंसर जैसे गंभीर रोग से पीड़ित होकर आज से चौबीस साल पहले जब हम बत्तीस साल के ही हो पाए थे माँ पिता दोनों परलोक धामी हो गए।
हमें याद नहीं पिता ने कभी डांटा भी था।मगर मुझसे एक ऐसी भूल हुई है जिसके प्रायश्चित कभी हो नहीं सकती,जब पिता कैंसर से लड़ रहे थे मुझसे अपने साथ ले चलने की बहुत जिद किए किंतु उनकी हालत और पति की नौकरी दूसरे जगह मैं ससुराल में रहने के कारण उन्हें साथ नहीं ला पाई ,मुझसे नाराज़ होकर बोले जा आज के पंद्रहवें दिन मेरी मौत की खबर जायेगी और सच में चौदहवें दिन महाप्रयाण को निकल गए। मुझे प्रायश्चित्त का मौका दिए बिना।
लता शर्मा तृषा