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मझधार – नीलम सोनी की कलम से

 

एक औरत की जिंदगी मझधार सी हो गई है। समय की नाव मे फंस कर मझधार सी हो गई जिंदगी। हर कोई कहते हैं ये नहीं करना वो नहीं करना। मझधार सी हो गयी है जिंदगी। यहां नहीं जाना वहॉं नहीं जाना मझधार सी हो गई है जिंदगी। इसे कुछ नहीं कहना उसे कुछ नहीं कहना मझधार सी हो गयी है जिंदगी। इस से मत बोलो उससे मत बोलो इसके नहीं जाना उसके नहीं जाना मझधार सी हो गई है जिंदगी। यहां मत बैठो वहॉं मत बैठो इतना मत हँसो इतना आराम मत करो मझधार सी हो गयी है जिंदगी। इससे रिश्ता मत रखो उससे रिश्ता मत रखो मझधार सी हो गई है जिंदगी। ये मत खाओ वो मत खाओ मझधार सी हो गयी है जिंदगी। क्यु दुनिया वाले एक औरत पर ही इतने नियम लगाते हें। मझधार सी हो गयी है जिंदगी। क्या एक औरत को जीने का कोई अधिकार नहीं है पुरूष स्वतंत्रता पूर्वक अपनी जिंदगी जी सकते हैं औरत क्यु नहीं क्या औरत होना एक अभिशाप हैं। आज की नारी हर क्षेत्र मे पुरुषों से आगे हैं। एक औरत घर बाहर सारी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए कंधे कंधा मिलाकर कार्य करती हैं और अपने परिवार को सुचारू रूप से चलाती है एक पुरूष ऑफिस से घर आता हैं तब उसको चाय का प्याला हाथ में चाइये और एक औरत घर बच्चों को संभालते संभालते ऑफिस जाती है और जब शाम को थक हारकर घर आती हैं तो पर्स एक तरफ पटक कर सीधी रसोई में जाती हैं और सब के लिए चाय बनाकर लाती हैं परिवार का कोई भी व्यक्ति उस के प्रति हमदर्दी नहीं जताता एसा क्यों क्या वो नहीं थकती। या मिट्टी की बनी होती हैं और तो और फिर बच्चों की फर्माइश का खाना स्कूल का होमवर्क औरत कोई मशीनरी तो नहीं। उसे भी भगवान ने हाड़ मांस की ही बनाई है फिर उस के साथ भेदभाव क्यूँ सच में औरत की जिंदगी एक मझधार सी हो गई है।
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लेखिका …,नीलम सोनी

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