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नारी स्वतंत्रता सेनानियों को अद्भुत कौशल और त्याग की प्रकाष्ठा — पल्लवी राजू चौहान कांदिवली

आपको इस बात की जानकारी अवश्य होगी कि प्राचीनकाल में स्त्रियों को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त था। इनके साथ लिंग के आधार पर कोई भेद भाव नहीं होता था। इन्हे देवी, जननी का दर्जा प्राप्त था। इन्हें पूजनीय माना जाता था। वे पुरुषों के हर कार्य में बढ़ चढ़कर भाग लेती थीं। वहीं वैदिक काल में ये ऋषि मुनियों के यज्ञ में भाग ही नहीं लेती थीं, बल्कि यज्ञ और पूजा की क्रियाओं में भाग लेकर उन्हें संपन्न कराती थीं। ये धर्मशास्त्र में पुरुषों के समान भाग लेकर अपनी उत्कृष्ठता को प्राप्त करती थीं। इस वैदिक काल में महिला ऋषि भी हुआ करती थीं। इसके पश्चात धीरे धीरे इनके अधिकारों का क्षरण होता चला गया। वे कई तरह की यातनाओं से ग्रसित चहारदीवारी में जीवन गुजारने पर मजबूर हो गई। उनसे धीरे धीरे शिक्षा का अधिकार भी जाता रहा।
स्वतंत्रता पूर्व इनकी स्थिति बहुत दयनीय हो चुकी थी। ये अशिक्षा, धार्मिक निषेध, निर्भरता, पुरुषों के विपरीत दृष्टिकोण ने इन्हें कई कुप्रथाओं की जंजीर में जकड़ दिया। इन्हें कई कुप्रथाओं जैसे बालविवाह, अनमेल विवाह, पर्दाप्रथा, सती प्रथा बंधनों से जकड़ दिया गया था। इन कुप्रथाओं का कारण क्या था?
मुगल आक्रांताओं के आगमन के पश्चात धीरे धीरे हमारा देश गुलामी की जंजीर में जकड़ता चला गया। महिलाएं धीरे धीरे मुगलों और बाह्य विदेशी आक्रमण की वजह से मध्यकाल के अंत तक कई कुप्रथाओं की जंजीर में जकड़ी गई। मुस्लिम आक्रांताओं का हिंदू महिलाओं पर अत्याचार बढ़ता चला गया था, जिस कारण पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा जैसी नियमों को लाद दिया गया। इन प्रथाओं के बोझ से दबा व्यक्तित्व चहारदीवारों में कैद होकर रह गया। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इन्हीं महिलाओं में से कुछ समझदार महिलाएं इन कुप्रथाओं की जंजीर को तोड़कर आजाद भारत के अभियान के लिए अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया। वे घर परिवार छोड़कर भगत सिंह और राजगुरु जैसे क्रतिकार्यों को गुप्त समर्थन देने में अहम भूमिका निभाई।
ऐसी महिलाओं से संबंधित जुड़े तथ्य को आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूं।
मध्यकाल के दौरान पद्मावती सिंहल द्वीप के राजा की बेटी थी। यह राजघराने में जन्मी बहुत ही सुंदर थीं। इनका विवाह राजपूत शासक रतन सिंह से हुआ था, जो चित्तौड़गढ़ के राजा थे। अलाउद्दीन खिलजी, खिलजी वंश का शासक था। भारतीय उपमहाद्वीप में दिल्ली सल्तनत पर शासक था। अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती की खूबसूरती की चर्चा बहुत सुनी थी। उसने चित्तौड़ के राजा को बंदी बना लिया था। जब राजा जेल में थे। उस वक्त राजस्थान के अरावली पहाड़ियों की पश्चिमी श्रृंखला में एक किला था। जिसका नाम कुंभलगढ़ था। जिसे भारत की महान दीवार के बारे में भी जानते है। उसी दौरान कुंभलनेर के राजा देवपाल रानी पद्मावती पर बहुत ज्यादा मोहित थे। देवपाल ने पद्मावती से शादी का प्रस्ताव रखा। उस वक्त रत्न सिंह चित्तौड़ लौट आए थे। उन्होंने देवापाल से द्वंद्व युद्ध किया था, जिसमें उनका देहांत हो गया। अलाउद्दीन खिलजी पदमावती को पाने के लिए चित्तौड़ गढ़ की चारो तरफ से घेराबंदी कर दी। वहीं जायसी सूफी के ग्रंथ में यह कहा गया है कि अलाउद्दीन खिलजी के घेराबंदी के दौरान हो रहे युद्ध में रतन सिंह की मृत्यु हो गई। अलाउद्दीन खिलजी किसी भी हालत में पद्मावती को प्राप्त करना चाहता था, लेकिन पद्मावती अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जौहर कर लिया। उन्होंने अग्नि में कूदकर जान दे दी।
ब्रिटिश साम्राज्य से लड़ने वाली पहली महिला झांसी की रानी थीं। इनका विवाह गंगाधर राव से बहुत ही कम उम्र में हो गया था। इनका कोई बालक नहीं था। इन्होंने एक बच्चे को गोद लिया था। इनके पति के देहांत के बाद ब्रिटिश इनके गोद लिए बच्चे को इनके राजा मानने से इनकार कर दिया था। वे उसे उस राज्य का उत्तराधिकारी मानने के लिए तैयार नहीं थे। जिसकरण झांसी की रानी अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर गई। वह अपने बच्चे को छाती से बांधकर अग्रेंजों से खूब लड़ी। रानी लक्ष्मीबाई को अंग्रेज पकड़ नहीं पाएं। जब उन्हें कुछ नहीं सूझा तब इन्होंने आग लगाकर अपने जीवन को त्याग दिया।
हाड़ी की रानी राजस्थान के हाड़ा राजपूत चौहान की बेटी थी। उनका विवाह राजा रतन सिंह चुड़ावत से हुआ था, जो मेवाड़ के सलुंबर के सरदार थे। इनकी रानी बेहद खूबसूरत थी। इनकी शादी हुए कुछ ही दिन गुजरे थे, रानी के हाथ की मेंहदी के रंग भी नहीं उतरे थे। तभी ही राजा रतन सिंह ने मुगल गवर्नर अजमेर सुबह के विरुद्ध विद्रोह करने का ऐलान किया था। वे जब युद्ध के लिए जानेवाले थे, तब उन्होंने रानी से युद्ध में जाते वक्त रानी की निशानी मांगी। हाड़ी रानी को यह एहसास हो गया कि वे राजा रतन सिंह के राजपूत धर्म के पालन में बाधा बन रही है, तब उन्होंने अपने सिर को काटकर थाली में सजाकर राजा को भिजवा दिया। रानी के इस निर्णय पर उन्हें बहुत ग्लानि हुआ। उन्होंने उनके ही बाल से सिर को बांधकर युद्ध किया। जब यह युद्ध समाप्त हो गया तब उन्होंने रानी के वियोग में अपने जीवन को भी समाप्त कर दिया। जब हमारे भारत वर्ष पर कई बरसों से अंग्रेजी हुकूमत का बोलबाला था। स्वतंत्रता सेनानियों ने भारत से अंग्रेजी हुकूमत को समाप्त करने के लिए जवाबी कार्यवाही जोरशोर से शुरू कर दी थी। उस वक्त दुर्गा भाभी स्वतंत्रता सेनानियों की प्रमुख सहयोगी थीं।
दुर्गा भाभी भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली क्रांतिकारी महिला थीं। ये ससुराल और मायके दोनों तरफ से संपन्न घराने से ताल्लुक रखती थीं। इनके पति का नाम भगवती चरण बोहरा था। इनके ससुर शिव चरण बोहरा रेलवे में ऊंचे पद पर तैनात थे। अंग्रेज इन्हें राय साहब कहकर पुकारा करते थे। इतना होने के बावजूद वे क्रांतिकारी संगठन के प्रचार सचिव थे। दुर्गा भाभी का भगवती चरण बोहरा जी से शादी १० साल की उम्र में ही हो चुकी थीं। भगवती चरण भी भगत सिंह के साथ मिलकर भारत देश को स्वतंत्रता संग्राम के दौरान आजादी के लिए संघर्ष कर रहे थे। इनके पिता की मृत्यु १९२० में होने के पश्चात भगवती चरण खुलकर स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने लगे। दुर्गा भाभी भी भगवती चरण बोहरा को सम्पूर्णतः इस संग्राम में सहयोग देने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
दुर्गा भाभी उस वक्त जब स्त्रियां घर की
चहार दिवारी में कैद रहती थीं, घर से बाहर निकलने के लिए हिम्मत नहीं जुटा पाती थीं, ऐसे वक्त में इन्होंने प्रभाकर की डिग्री हासिल की थी। उस वक्त भगवती चरण बोहरा और भगत सिंह दोनों ने नौजवान भारत सभा का प्रारूप तैयार किया था। इसके पश्चात रामचंद्र कपूर के साथ मिलकर इस संगठन की स्थापना की गई। इन्होंने अपने रक्त से लिखकर प्रतिज्ञा पत्र पर हस्ताक्षर किए थे। इस आजादी के लिए सभी बलि की वेदी पर चढ़ने के लिए तैयार थे। १९३० में बम बनाते वक्त भगवती चरण बोहरा का देहांत हो गया। इनके पति का देहांत होने के बावजूद इन्होंने ९ अक्टूबर १९३० को गवर्नर हेली पर गोली चला दी। गवर्नर हेली तो बच गया, लेकिन अधिकारी टेलर घायल हो गया। मुंबई के पुलिस कमिश्नर पर भी दुर्गा भाभी ने गोली चला दी थी। इसके बाद पुलिस इनके पीछे पड़ गई। फिर एक दिन मुंबई एक फ्लैट से इनके क्रांतिकारी मित्र यशपाल के साथ इन्हें पुलिस ने पकड़ लिया। दुर्गा भाभी का काम पिस्तौल लाना व लें जाना था। आजाद चंद्रशेखर ने अंग्रेजों से लड़ते वक्त जिस पिस्तौल से खुद को गोली मारी थी, वह दुर्गा भाभी ने ही दी थी।
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त जब असेंबली में बम फेंकने जा रहे थे, तब दुर्गा भाभी और सुशीला मोहन ने अपने रक्त से ही इन दोनों का तिलक किया था। भगत सिंह और उनके सहयोगियों को असेंबली में बम फेंकने के बाद इन्हें गिरफ्तार करके फांसी दे दी गई थी। इसके बाद वे बिलकुल अकेली पड़ गई। अपने पांच वर्षीय बालक को लेकर शिक्षा दिलाने के लिए दिल्ली चली गई। वहां पर पुलिस ने उन्हें बहुत परेशान किया। उसके बाद वे दिल्ली से लाहौर चली गई। जहां पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। इन्होंने भी अपने पूरे जीवन बहुत संघर्ष किया। गाजियाबाद के प्यारेलाल विद्यालय में अध्यापिका के पद पर रहीं। इन्होंने कांग्रेस से जुड़कर कार्य भी किया, किंतु उनको कांग्रेसी एक जीवन रास नहीं आया। इन्होंने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किए १४ अक्टूबर १९९९ को इन्होंने इस दुनिया को अलविदा का दिया।
नीरा आर्या भारत की पहली महिला जासूस थी। रानी झांसी रेजीमेंट की सिपाही जो सुभाष चंद्र बोस की बॉडीगार्ड थी। उनके पति श्रीकांत जय रंजन सरकारी गुप्तचर विभाग में कार्यरत थे। इन्होंने कई क्रातिकारियों को भी पकड़वाया था। अब वे सुभाषचंद्र बोस के पीछे पड़ गए थे। सुभाष चंद्र बोस को मारने के लिए अंग्रेजों के साथ रणनीति तैयार कर रहे थे। नीरा आर्या ने इनसे दो टूक कह दिया था कि नौकरी और मुझमें से किसी एक को चुन लो। इनके पति ने नौकरी को चुना। उसी वक्त ये उस घर को छोड़कर निकल गई और अपने धर्म पिता आचार्य चतुर्सेन के यहां आ गई। वे दिल्ली के शहादरा में रहते थे। अपने पति श्रीकांत जय रंजन, जो सुभाष चंद्रबोस की जान के दुश्मन बन गए थे, उनकी भी नीरा आर्या ने हत्या कर दी थी। नीरा खेकड़ा के सांकरौद गांव में इनकी मुलाकात इनके ही परिचित राम सिंह से हुई, जो आजाद हिंद फौज में शामिल होने और सिंगापुर जाने की सूचना दी। तभी ही नीरा आर्या ने भी आजाद हिंद फौज से जुड़ने की इच्छा जताई। उसके बाद नीरा छोटे भाई बसंत और बागपत के सरदार सिंह तूफान और रतन सिंह जैसे सहयोगियों के साथ सिंगापुर पहुंच गई। आजाद हिंद फौज की रानी झांसी रेजीमेंट में भर्ती हो गई। नीरा को ब्रिटिश औपनिवेशिक सरकार द्वारा अंडमान निकोबार द्वीप में काला पानी की सजा देकर भेज दिया गया। इस ब्रिटिश सरकार ने और उनसे जुड़े अन्य अधिकारियों ने इनसे सुभाषचंद्र बोस की जानकारी प्राप्त करने के लिए बहुत ही दर्दनाक कई यातनाएं दी, किंतु नीरा आर्या ने किसी भी प्रकार से उनके बारे में सूचना देने से इनकार कर दिया। उन्हें इस बात का लालच दिया गया कि वे अगर आजाद हिंद फौज के नेता के बारे में बताएगी, तो उसे जमानत दे दी जाएगी। राष्ट्रवादी विचारधारा से ओतप्रोत नीरा ने उन्हें जानकारी देने से मना कर दिया। तमाम मुश्किलों और दर्दनाक प्रताड़ना के बाद भी नीरा आर्या अपने निर्णय पर अटल रही। नीरा आर्या ने २६ जुलाई १९९८ को चारमीनार के पास उस्मानिया अस्पताल में अंतिम सांस ली। इतनी कर्मठ, कर्तव्यपरायणा और राष्ट्रवादी विचारधारा से ओतप्रोत यह स्वत्रंता सेनानी, जो हमारे देश की स्वाभिमानी स्वावलंबी महिला को यदि हमारे देश में न्याय नहीं मिला, तो इससे दुखद घटना हमारे देश के लिए क्या हो सकती है।
ऐसी ही कई और महिलाएं हैं, जिन्होंने अपने देश के अपना घर परिवार का सुख छोड़कर भारत के लिए बहुत योगदान दिया अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया पर उन्हें इतिहास के पन्नों में सही तरीके से स्थान नहीं मिला। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है।
जय हिंद, जय भारत
लेखिका: पल्लवी राजू चौहान
कांदिवली, मुंबई

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