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पिता सा आसमान — सीमा शर्मा तमन्ना 

थाम कर उंगली उसकी वह बचपन जो जवान हो जाता है
राह में आने वाली हर कठिनाई उससे वह स्वयं जूझ जाता है।
अपनी संस्कृति की खातिर ना जाने कितने वह कष्ट उठाता है
पूरित हो सपने उसके रविवार को भी ओवर टाइम करके आता है

होता व्यथित,विचलित वह मगर स्वयं को बनपाषाण दिखता है
जीवन के कंटक वनों में चलने की उसकी राह सुपथ बनाता है।
यदि आए संकट परिवार पर कोई, बन चट्टान उससे टकराता है
ना आने दे कभी शिकन चेहरे परअपनी खातिर परिवार बचाता है।

संसार रुपी नदिया की मझधार में स्वयं ही मांझी बन जाता है।
डगमगाती इस जीवन नैया की जब वह स्वयं पतवार चलता है।
भाग्य विडंबना आज यह कि संसार यह पिता दिवस मनाता है
जिस संतति धन को जीवन भर सींचे,वही दशरथ क्यों वन को जाता है?

है आधुनिक युग यह पितृ दिवस यूं तो प्रत्येक वर्ष ही मनाता है
भेंड़चाल की देखा-देखी ओन सोशल मीडिया शोर मचाता है।
पर यदि समेट सको तो समेट लो वह वक्त जो बीता जाता है
एक बार जाने वाला लौटकर संसार में वापस कहां आता है।।

सच है इनकी छाया में बीता पल आज भी बहुत याद आता है
सौभाग्यशाली हैं जिनके हिस्से में पिता सा आसमान आता है ।

सीमा शर्मा तमन्ना
नोएडा उत्तर प्रदेश

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