पुरी का जगन्नाथ धाम – आस्था, इतिहास और अध्यात्म का अद्वितीय संगम — मंजू शर्मा “मनस्विनी” कार्यकारी संपादक

हिंदू धर्म के चार प्रमुख धामों में से एक है पुरी का जगन्नाथ धाम, जो न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि इतिहास और संस्कृति का भी अनमोल खजाना समेटे हुए है। यह काशी के बाद भारत का दूसरा प्रमुख शिव क्षेत्र माना जाता है। सप्तपुरी – भारत के सात पवित्र स्थानों में भी पुरी का विशेष स्थान है और यह 108 सर्वोत्तम तीर्थ स्थलों में गिना जाता है।
पुराणों में इस स्थान को धरती का बैकुंठ कहा गया है।
आइये हम सब जानें… मेरी निहारिका के माध्यम से जगन्नाथ मंदिर की स्थापना का रहस्य
कहा जाता है कि 12वीं शताब्दी में गंग वंश के राजा अनंतवर्मन चोडगंग को भगवान ने स्वप्न में दर्शन दिए और मंदिर निर्माण का आदेश दिया। राजा ने उसी समय मंदिर का निर्माण शुरू करवाया। निर्माण काल में कई हमले हुए, मंदिर को लूटा गया, किंतु भगवान की मूर्तियों को सुरक्षित रखा गया।
इस स्थल पर लक्ष्मी जी और विष्णु भगवान की कई लीलाएं भी जुड़ी हैं। ब्रह्मपुराण और स्कंधपुराण के अनुसार, यहां भगवान विष्णु ने नीलमाधव के रूप में अवतार लिया था। इस रूप की पूजा सबसे पहले सबर जाति के पूज्य विश्ववसु ने की थी।
सबर जाति के देवताओं की मूर्तियाँ काष्ठ से बनी होती हैं। आज भी जगन्नाथ मंदिर में सबर जाति के पुजारी सेवाकर्मी के रूप में मौजूद है। जिन्हें दैतापति कहा जाता है, अन्य पुजारियों के साथ सेवा करते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा का रहस्यपूर्ण मिलन-
मान्यताओं के अनुसार, जब द्वारका में भगवान श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार हुआ, तब उनके बड़े भाई बलराम अत्यंत दुखी होकर उनके मृत शरीर को लेकर समुद्र में समा गए। उनके पीछे बहन सुभद्रा भी चली गईं।
सतयुग में राजा इंद्रद्युम्न और उनकी पत्नी गुंडिचा विष्णु भक्त थे। उनके महल के आंगन में एक नीम का पेड़ था, जिसके नीचे बैठकर राजा यज्ञ और ध्यान करते थे। एक दिन स्वप्न में भगवान ने उन्हें दर्शन दिए और बताया कि नीलांचल की एक गुफा में मेरी मूर्ति है—नीलमाधव। राजा ने सैनिकों को खोज में भेजा। विद्यापति नामक ब्राह्मण को ज्ञात था कि सबर जाति के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं। उन्होंने विश्ववसु की बेटी से विवाह कर लिया और बड़ी चतुराई से उस गुफा तक पहुँचा और मूर्ति की चोरी कर ले आया।
मूर्ति गुफा में न मिलने पर विश्ववसु बहुत दुखी हुए, और उनके दुख से भगवान भी दुखी हो गए। फिर भगवान ने स्वप्न में राजा को बताया कि समुद्र से तैरता हुआ एक नीम का पेड़ आएगा, उससे मेरी मूर्ति बनाओ। राजा ने पेड़ की खोजबीन में सैनिकों को भेज दिया। कुछ समय बाद वह पेड़ मिला, पर उसे कोई हिला भी न सका। भगवान ने कहा, कि केवल विश्ववसु ही उसे उठा सकता है उसे बुलवाओ । विश्ववसु को बुलाया गया और विश्ववसु ने उसे उठाया और मंदिर के प्रांगण में लाकर रख दिया।
लेकिन अदभुत घटना ये हुई की उस पेड़ में कोई छेनी भी नहीं लगा सका।
तब एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में विश्वकर्मा जी स्वयं आए और मूर्तियाँ बनाने का कार्य स्वीकार किया, लेकिन शर्त रखी कि 21 दिनों तक कोई द्वार न खोले। राजा ने स्वीकार किया। मगर एक दिन भीतर से कोई आवाज़ न आने पर रानी ने चिंता में द्वार खुलवाया। अंदर कोई नहीं मिला और मूर्तियाँ बिना हाथ-पांव की अधूरी रह गईं। इन्हीं मूर्तियों की आज भी पूजा होती है।
राजा इंद्रद्युम्न की भक्ति और वरदान
राजा-रानी मंदिर के सारे कार्य स्वयं करते थे। एक दिन भगवान ने कहा, “राजा होकर तुम यह सब कार्य करते हो शोभा नहीं देता?” राजा ने उत्तर दिया, “प्रभु! आपका हर कार्य मेरे लिए सौभाग्य है।” प्रभु ने वरदान माँगने को कहा। राजा ने कहा, “मेरे वंश में कोई मेरे नाम से न जाना जाए।” रानी गुंडिचा यह सुनकर भावविभोर हो गईं और अपने मातृत्व के साथ अपने आंसुओं को भी आंचल में समेटने लगी।
तभी भगवान ने उनके मातृत्व भाव को स्वीकार किया और कहा, “तुम मेरी मांसी हो। हर वर्ष मैं रथ में बैठकर तेरे पास तुमसे मिलने आऊँगा और 7 दिन वही रहूंगा।”
तभी से आज तक रथयात्रा के माध्यम से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा रथ में बैठकर मां गुंडिचा से मिलने जाते हैं।
स्नान पूर्णिमा, यानी ज्येष्ठ पूर्णिमा को भगवान का अवतरण दिवस माना जाता है। उस दिन तीनों भगवानों को मंदिर के समीप तालाब में 108 कलशों से स्नान कराया जाता है। इस स्नान के बाद वे बीमार हो जाते हैं। मंदिर के पट बंद हो जाते हैं और 15 दिन तक सिर्फ कुछ वेद और पुजारी उनकी सेवा में रहते हैं। फिर स्वस्थ होकर नवयुवन नेत्र उत्सव के रूप में भक्तों को दर्शन देते हैं।
हर 12 वर्ष में नवनिर्माण–दैवी प्रक्रिया कहा जाता है।
12 वर्षों में एक बार मूर्तियों का नव निर्माण अत्यंत पवित्र प्रक्रिया के साथ किया जाता है। भगवान के हृदय तत्व को नई मूर्ति में स्थापित करते समय पुजारी के हाथों में दस्ताने और आँखों पर पट्टी बांधी जाती है और पूरे नगर में इस घटनाक्रम के दौरान कुछ क्षणों के लिए लाइट काटकर नगर को अंधकार में डाल दिया जाता है, ताकि इस रहस्य को कोई देख न सके।
पुरी, सप्तपुरी में श्रेष्ठ, भारत के आत्मिक और सांस्कृतिक हृदय की धड़कन है। यहाँ का हर कोना, हर कथा, हर परंपरा श्रद्धालुओं के हृदय में आस्था की लौ जलाता है। जगन्नाथ धाम एक ऐसा स्थान है जहाँ केवल दर्शन नहीं होते, अपितु आत्मा का भी पुनर्जन्म होता है।
मंजू शर्मा “मनस्विनी”
कार्यकारी संपादक