वह गर्मियों की छुट्टियां – गद्य (संस्मरण) – राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

कहते हैं अतीत बहुत सुन्दर होता है, हां यह बात तब अक्षरशः सत्य प्रतीत होता है,जब कभी हम अतीत के झरोखे में निहारते हैं।मुझे याद है वो गर्मियों के छुट्टियां और वो मस्ती आनंद भरे दिन।दोहरी खुशी का उपहार मिलता प्रतीत होता था। एक तो स्कूल से छुट्टी दूसरी किताबों से मुक्ति का अहसास। नवजात गाय का एक
बछड़ा जिस प्रहार उर्च्छंकल भाव से उछलता कूदता है, ठीक उसी प्रकार हम भी अपनों दोस्तों के साथ छुट्टियों का संपूर्ण आनंद लिया करते थे। कह सकते हैं कि तब आर्थिक रूप से गरीब हुआ करते थे, लेकिन मन के राजा और माता पिता के लाडले हुआ करते थे। छुट्टियों के दौरान कबड्डी,गुल्ली डंडा,छीना पट्टी, सतोलिया, और कपड़े से निर्मित गेंद से खेलना और सबसे प्रिय खेल हरी नीली पीली नारंगी कंचियों से खेलना निशाना लगाकर जेब में कंचियां भरना मुख्य शगल हुआ करता था। पेड़ पर चढ़कर गुलाम लकड़ी खेलना,खो खो खेल खेलना और नदी में कूद कूद कर नहाना एक स्वप्निल आनंद सा लगता था। कभी खरबूजे तरबूज के खेतों में चले जाते और बिना मोल चुकाए,खूब खरबूजे तरबूज का आनंद उठाते। लोग इतने शुद्ध मन वाले होते थे कि अपने खेतों में आए बच्चों का खूब सत्कार किया करते थे और मुफ्त में जो भी कुछ होता उनके पास वो सहज भाव से खिलाया करते थे। कभी दोस्तों की टोली आस
पास के मेलों में स्वछंद भाव से घूमने चली जाती और थोडे बहुत पैसों में भी खुशियां खरीद लाते। वो कितने सीधे सादे सच्चे लोग थे। ना कोई चोरी चकारी का भाव ना ही किसी से बैर भाव था तो सिर्फ़ आपसी सहमति सहयोग और लगाव।
राजेन्द्र परिहार “सैनिक”