याद आई वो चारपाई — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

जिस पर न सिर्फ़ शरीर आराम करता था, बल्कि आत्मा भी सुकून पाती थी। बेंत और रस्सी की बुनी हुई वो साधारण-सी चारपाई, मेरे जीवन की सबसे ख़ास जगहों में से एक थी। आज जब आधुनिक बिस्तरों पर नींद नहीं आती, तब उसकी झूलती रस्सियाँ याद आती हैं – जैसे किसी माँ की गोद हो, जो हर थकान को अपनी झपकी में समा लेती थी।
गांव के उस आंगन में दोपहर की धूप जब अंगारे-सी लगती थी, तब नीम की छांव में रखी वो चारपाई ठंडी हवा सी राहत देती थी। कभी उस पर बैठकर नानी कहानी सुनाती थीं, तो कभी पापा दिनभर की थकान लेकर वहीं लेटते थे। वो चारपाई सिर्फ़ एक फर्नीचर नहीं थी, वह हमारे परिवार का साझा समय थी, रिश्तों की वह गूँज थी, जो दीवारों में नहीं, उसकी हर रस्सी की गाँठ में बसी थी।
रातों को जब बिजली चली जाती, तब छत पर बिछाई जाती वो चारपाई। ऊपर आसमान को निहारते,
तारे गिनते-गिनते कब नींद आ जाती, पता ही नहीं चलता। सर्दियों में रजाई के साथ वो चारपाई, गर्मियों में पंखा झोलती माँ के साथ वो चारपाई — सब कुछ बस उसी के आसपास घूमता था।
अब तो वह आंगन भी नहीं, वह घर भी नहीं… और वो चारपाई? शायद किसी कोने में जर्जर पड़ी होगी या चूल्हे की आग बन चुकी होगी। पर मन में वो यादें जस की तस हैं – ज्यों कोई पुराना गीत, जो हर उम्र में नया लगता है।
वो चारपाई अब नहीं है, लेकिन उसका अहसास, उसका अपनापन, उसकी सहजता…
आज भी मेरी स्मृतियों में सांस ले रहे हैं।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या