भक्ति में शक्ति – प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

भक्ति—एक सरल शब्द, परंतु इसका अर्थ और प्रभाव अत्यंत गहन है। भक्ति केवल देवी-देवताओं की आराधना नहीं, यह आत्मा की उस शक्ति से जुड़ने की प्रक्रिया है जो हमें हमारी सीमाओं से ऊपर उठने की क्षमता देती है। जब मन श्रद्धा में झुकता है, तब आत्मा ऊर्ध्वगामी हो जाती है।
भक्ति का आधार निस्वार्थ प्रेम, समर्पण और आस्था है। यह केवल मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों या गिरजाघरों में दिखाई देने वाली कोई क्रिया नहीं, बल्कि हर सांस में परम सत्ता का स्मरण है। वह किसान जो अपने हल में ईश्वर देखता है, वह माँ जो रोटी बेलते समय हर कण में अपने प्रभु को पाती है, वह भी भक्ति में लीन होते हैं।
जब-जब संसार में असत्य, अन्याय और अत्याचार बढ़ा है, तब-तब भक्ति ने ही शक्ति का रूप लिया है। माता मीरा, जिन्होंने विष का प्याला प्रेम से पी लिया; संत तुलसीदास, जिनके रामभक्ति ने इतिहास रच दिया; और माँ दुर्गा, जो शक्ति की मूर्त हैं—ये सभी उदाहरण हैं कि भक्ति केवल निवेदन नहीं, एक क्रांतिकारी ऊर्जा है।
भक्ति व्यक्ति को निर्बल नहीं बनाती, वह निर्भीक बनाती है। वह अहं को गलाकर आत्म-प्रकाश का दीप जलाती है। वह हमें अपने अंदर छुपी शक्ति से परिचित कराती है। सच तो यह है कि भक्त कभी अकेला नहीं होता, उसकी शक्ति में उसका आराध्य सदा निवास करता है।
आज जब मनुष्य भौतिकता में उलझा है, तब उसे भक्ति की उसी शक्ति की आवश्यकता है जो उसे भीतर से मजबूत बनाए। भक्ति वह दीप है जो अंधकार को मिटाता है, वह दीपक जो तूफानों से भी नहीं बुझता।
भक्ति कोई कर्मकांड नहीं, वह आत्मा का आह्वान है। और जब आत्मा जागती है, तब उसमें छुपी हुई शक्ति स्वयं प्रकट हो जाती है। इसलिए कहा गया हैनकि
“भक्ति में जो शक्ति है, वह किसी भी शस्त्र या शासन में नहीं।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या