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हार की जीत (लघुकथा) – राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

 

रामचरण एक प्रतिष्ठित व्यापारी थे। पत्नी सुनीता और दो पुत्र बड़ा रामकिशन और छोटा देवकिशन। रामचरण जी ने दोनों पुत्रों का विवाह कर दिया था और दोनों को कारोबार संभला कर निश्चिंत हो गये थे। रामचरण जी अपना अधिकतर समय धार्मिक अनुष्ठानों में व्यतीत करते और भग्वत-भक्ति में ध्यान लगाते। बड़ी बहु रजनी एक खाते पीते परिवार से आई थी व दहेज में मोटा धन दौलत लेकर आई थी जबकि छोटी बहु एक साधारण से परिवार से आई थी और दहेज में बड़ी बहू के मुकाबले बहुत कम ही लेकर आए थे। रामचरण जी सज्जन और साधू स्वभाव व्यक्ति थे। वो दोनों बहुओ से समान व्यवहार करते थे,जबकि सास सुनीता क्रोधी और लालची स्वभाव की औरत थी।वो दोनों बहुओं में अंतर महसूस किया करती थी। बड़ी बहु के बनिस्पत छोटी बहू से ज्यादा काम करवाती, प्रताड़ित करती,
दहेज के लिए ताना मारती रहती। बड़ी बहु भी सास की हां में हां मिलाकर छोटी बहू को प्रताड़ित किया करती। छोटी बहू बहुत सहन करती, उसे दुःख भी होता लेकिन कर ही क्या सकती थी। बड़ी बहू छोटी बहू पर ज़ुल्म करके अपनी जीत समझती जबकि छोटी बहू हर बात में अपनी हार महसूस करती। ख़ैर सुख हो या दुःख वक्त का पहिया चलता रहता है। वक्त बदलना कुदरत का नियम है और वक्त बदला भी। सास सुनीता अब उम्रदराज महिला हो चुकी थी। बुढ़ापा दस्तक दे चुका था। शारीरिक व्याधियां भी उभर कर सामने आने लगी फिर भी स्वभाव नहीं बदला। रामचरण जी भी अस्वस्थ रहने लगे थे। रामचरण जी को असाध्य रोग दमा ने घेर लिया। जितनी दवा की मर्ज बढ़ता ही गया और उन्होंने चारपाई पकड़ ली। शरीर कृषकाय हो गया और सुनीता जी भी गठिया रोग की शिकार हो गई। बड़ी बहु ने सोच लिया कि अब इनकी सेवा करने की बारी आएगी सो वह अपने पति पर अलग होने का दबाव बनाने लगी। शुरू शुरू में पति ने अलग होने का विरोध किया किन्तु लगातार जोर डालने पर वो भी मान गया। माता पिता से को यह जानकर बहुत दुःख हुआ लेकिन कर भी क्या सकते थे। इजाजत मिलते ही बड़े भाई ने नया मकान खरीद लिया और परिवार सहित मजे से रहने लगा। छोटी बहू के पास कोई विकल्प नहीं था। वो वहीं खुशी से रहते हुए सास ससुर दोनों की सेवा तन मन से करने लगी। अब सास का व्यवहार भी नरम पड़ चुका था। निरंतर सार संभाल से सास ससुर दोनों स्वस्थ रहने लगे। एक दिन रामचरण जी ने पत्नी सुनीता और सारे परिवार को इकट्ठा किया। बड़े बेटे बहू को भी बुलाया गया और घोषणा कर दी कि वो वसीयत करने वाले हैं। बड़े बेटे बहु भी लालच में दौड़े चले आए। रामचरण जी ने सबके सामने स्पष्ट रूप से जता दिया कि भले ही तुम दोनों ही मेरे बेटे हो, किंतु जो सेवा करता है वही मेवा पाता है। जब हमें सेवा की नितांत आवश्यकता थी तब बड़ी बहू ने हमसे पूरी तरह से किनारा कर लिया और दूर चली गई जबकि छोटी बहु ने जीवन भर प्रताड़ना सहकर भी हमारे प्रति अपने दायित्व का पालन किया और हम दोनों की खूब सेवा की है जिससे हम स्वस्थ हो पाए हैं अत: मेरी सारी जायदाद में छोटी बहू के नाम कर रहा हूं और यही न्यायसंगत होगा। सास सुनीता ने भी छोटी बहु की प्रशंसा करते हुए रामचरण जी के निर्णय का स्वागत किया। बड़े बेटे बहु के मुंह लटके हुए थे। आज उनकी हार हुई थी और छोटी बहु को हार की जीत का एहसास हो रहा था।

राजेन्द्र परिहार “सैनिक”

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