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कहानी – अजनबी से प्रेम — डॉ इंदु भार्गव

 

शाम की हल्की बारिश में मै रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठी थी — सादगी में डूबी, गीली पलकों में कोई पुराना दुःख, बगल में रखी सूटकेस और हाथ में भीगती डायरी उस के अकेलेपन की गवाही दे रहे थे।

मैंने अनायास ही पास बैठे हुए पूछा युवक से कहा , “भीग रहे हो, अंदर चलो?”ओर हम प्रतिक्षालय मे आ कर बैठ गए!
वो बहुत धीर गम्भीर मुद्रा मे बैठा था, हम दोनों तन्हा थे! तभी एक स्वर कानो मे पड़ा मेरी तन्द्रा टूटी सामने खाड़ा युवक दो कप चाय लिए मुखातिब होते हुए आग्रह कर रहा हो जैसे चाय लीजिए!

मैं चौंकी, फिर मुस्कुरा दी
उस ने धीरे से कहा “आप मुस्कुराया कीजिए आप की मुस्कान हसीन हैं” — वही मुस्कान जो बाद में मेरी यादों की सबसे कीमती चीज़ बन गई।
उस का दूसरा “सवाल आप को किसी का इंतज़ार हैं क्या” ?
“मुझे किसी का इंतज़ार नहीं है,” उसने धीरे से कहा।मैंने भी ना मे सर हिला दिया!
फिर ना जाने कैसे सच जुबां से निकला
मैंने कहा, “शायद मुझे है…”पर किस का???
एक अजनबी का शायद तुम…
तुम्हारा…

उस एक पंक्ति में जैसे मेरी पूरी कहानी छुपी थी। और उसके खामोश रह जाने में, उसकी झुकी नजरे सब कह रही थी l

अगले दिन फिर रेल्वे स्टेशन पर हमारी आंखे चार हुई मैंने उसे फिर उसी बेंच पर देखा — वही डायरी, वही
खामोशी।

“तुम रोज़ यहाँ क्यों आते हो?” मैंने पूछा।

“शायद किसी की यादें लौट आएं,” वो बोला। “और तुम?”

“शायद कोई नया किस्सा शुरू हो…” मैंने धीमे से कहा।

उस ने ने डायरी मेरी ओर बढ़ाई। “पढ़ना चाहोगी?”

मैंने पढ़ा — एक लड़की की कहानी जो किसी को आखिरी बार गले लगाना चाहती थी। लेकिन ट्रेनें हमेशा लेट होती हैं… और वक़्त हमेशा जल्दी चला जाता है।

मेरी आँखें भर आईं।

“तुम्हारा नाम?” मैंने पूछा।

“राज ,” उसने कहा। “क्योंकि कुछ रिश्ते नाम के मोहताज नहीं होते है!

हम रोज़ मिलने लगे। कभी चाय के साथ, कभी बारिश के साथ, कभी खामोशी के साथ।

मैंने उसे कभी कुछ कहा नहीं, लेकिन हर बार जाने से पहले उसकी सूटकेस पर हाथ फेर देती — जैसे कह रही हूँ, “रुक जाओ।”

एक दिन वह नहीं आया।

दूसरे दिन भी नहीं।

तीसरे दिन मैं उसी बेंच पर बैठे देखा। उसकी डायरी वहीं पड़ी थी।

मैने डायरी के पृष्ठ पर पैन से लिखा
अंतिम पृष्ठ तो नहीं लिख रही हूं – लेकिन अपनी अंतिम चाहत लिख रही हूं

> शायद अजनबी ही वो होते हैं, जिनसे सच्चा प्रेम होता है — क्योंकि उनसे हम बिना दिखावे के जुड़ते हैं। अगर मैं लौटूँ, और तुम न मिलो… तो जान लुंगी, मेरा प्रेम वहीं बैठा है, जहाँ तुम थे।

समाप्त नहीं… क्योंकि कुछ प्रेम कहानियाँ कभी पूरी नहीं होतीं — वे बस जी जाती हैं।
डॉ इंदु भार्गव जयपुर

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