लघुकथा – गुनाह — अनुराग उपाध्याय

रात के सन्नाटे में पुलिस की जीप एक
झोपड़ी के सामने रुकी। एक बुज़ुर्ग और उसका नाती दरवाज़े पर खड़े थे। इंस्पेक्टर ने दस्तावेज़ दिखाते हुए कहा,
“आपके बेटे रमेश को चोरी के आरोप में गिरफ़्तार किया गया है।”
बुज़ुर्ग ने कांपते हाथों से दस्तावेज़ लिए और आह भरी —
“मैं जानता था एक दिन ऐसा होगा।”
पास खड़ा नाती सहम गया, “दादा, पापा ने क्या चोरी की है ?”
बुज़ुर्ग की आँखें भर आईं, बोले,
“चोरी तो मैंने की थी बेटे… रमेश से उसका बचपन छीनकर।
गरीबी से लड़ने के नाम पर उसे स्कूल नहीं भेजा, काम पर भेज दिया।
खिलौनों की जगह हथौड़ा थमा दिया।
तब शायद मुझे लगा था कि पेट पालना ज़रूरी है — पर आज समझ आया,
उस वक़्त शिक्षा से जो रिश्ता तोड़ा था, वो गुनाह आज उसकी ज़िंदगी ने भुगता है।
नाती चुप था और इंस्पेक्टर भी।
गुनहगार सिर्फ रमेश नहीं था — एक पीढ़ी का पछताता अपराध भी था।
गुनाह हमेशा जेल की सलाखों से नहीं बँधता, कई बार वो चुपचाप एक बचपन की मुस्कान छीन लेता है।
लघुकथाकार – अनुराग उपाध्याय।
पता – मुरैना , मध्य प्रदेश।