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संस्मरण) – यादों का पिटारा – अलका गर्ग, गुरुग्राम

 

आज शादी के चालीस साल बाद
मुझे मौक़ा मिला अपनी ननिहाल की गिरती हवेली के खंडहरों में जा कर अपनी यादों को टटोलने का।
इन चालीस सालों में और भी दो बार जाने का मौक़ा मुझे मिला था।एक बार मामाजी की लड़की की शादी में और एक बार वैष्णव देवी से लौटते हुए एक दिन के लिए अपना ननिहाल देखने के लिए पति से आग्रह किया तो वे मुझे ले गये थे।पर इसको भी लगभग पच्चीस
साल हो गये थे।
न जाने कैसा खिंचाव है उस मिट्टी में कि बार बार मेरा मन वहीं खिंचता है।इतने साल देश विदेश में रहने के बाद भी मैं भूल नहीं पाई नानीजी के साथ गुज़ारे बचपन के वो सात साल…..उन सात सालों में मैंने ज़िंदगी भर के लिए प्यार समेट लिया था।ऐसा प्यार जो आज भी मुझे जीने का सम्बल देता है।उनके सिखाये गिनती पहाड़ों ने उसे हमेशा गणित में अव्वल रखा।सुबह पाँच बजे उठा कर रज़ाई ओढ़ा कर एक गिलास दूध और बड़ा सा लड्डू दे कर पढ़ने बिठा देतीं कहतीं सुबह का पढ़ा जल्दी याद होता है।आज भी कभी कभी मेरे सपनों में आकर पूछतीं हैं सत्रह का पहाड़ा याद किया,चलो सुनाओ..
छोटे भाई के आने के बाद तीन साल की अंजू को नानीजी के घर भेज दिया गया था।फिर वह दस साल की होने पर मम्मी पापा के पास कोलकाता गई।पर वह कभी अपनी ज़िंदगी के वो सात साल भुला ना सकी।ननिहाल की गलियाँ,सहेलियाँ,खिलौने,बैठक के मूढ़े,नानाजी का हुक्का,नानीजी का पानदान,आँगन का पीतल का हैंड पम्प,लड्डू,मठरी,गाय भैंसों के गले की घंटी की आवाज़,कालीजी का जलूस,तज़िया,
रामलीला,वामन टूइयाँ के रोटी माँगने की आवाज़,मंदिर का घंटा,मस्जिद की अज़ान……सब जस के तस आज भी मैंने अपनी यादों के पिटारे में सहेज कर रखे हुए हैं।
मेरी बचपन की सखियाँ अंजू,निशा,बीना भी मेरी यादों में बड़ी हुई हैं।पता नहीं मैं अब उनकी यादों में हूँ भी या नहीं।
आज कच्ची पक्की सड़कों से होते हुए,नानाजी की धर्मशाला के सामने से गुज़र कर गाड़ी जब मेरी ननिहाल की बंद हवेली के सामने जा कर रुकी तो लगा जैसे दरवाज़े,दीवारें सब गले मिलने को दौड़ पड़ीं हों ..मानो पूछ रही हों कहाँ थी इतने दिन…??
गाड़ी देख कर आस पास कुछ लोग इकट्ठे हो गए।सोच कर कि लालाजी के शहरों में बसे हुए घरवाले आये हैं।एक बुजुर्ग औरत ने दिमाग़ पर ज़ोर डाल कर मुझे पहचान लिया।अरे तुम तो बड़ी बिटिया की बेटी हो कलकत्ते वाली…तुम तो यहीं रहतीं थीं ना…मन किया कि उस बुजुर्ग महिला से लिपट जाऊँ जिसने मुझे पहचान कर फिर से मेरे बचपन के उन्ही पलों में पहुँचा दिया।
बंद दरवाज़े ,गिरती ईंटें और कभी गुलज़ार रहने वाले चबूतरे पर बैठ गई मैं अपनी यादों का पिटारा खोल कर।
फोटो खिचतीं जाती और पिटारे को यादों से और भी भरती जाती…ननिहाल की मीठी यादों को दोनों हाथों से समेट रही थी।शायद फिर कभी नहीं आ पाऊँ यहाँ….ये अनमोल धरोहर थीं मेरी शेष बाक़ी बची हुई ज़िंदगी के सहारे के लिए….

अलका गर्ग, गुरुग्राम

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