यादें — शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’

कल की ही तो बात है, हमारी कार शहर के बाहरी इलाके से गुज़र रही थी। नई सड़कें, चमचमाती इमारतें, भागती ज़िंदगी। पर तभी एक गली का वही पुराना रास्ता कुछ यादें लेकर आया एक भूला हुआ ज़माना, और दिल ने दस्तक दी। मन हुआ शीशा नीचे कर दूँ, ज़रा बाहर झाँक लूँ। कुछ था वहाँ, जो अब भी मुझे आवाज़ दे रहा था। पति ने टोका,
“अरे ए सी चल रहा है, शीशा मत खोलो।”. पर तब तक देर हो चुकी थी।
मैं एक झलक पा चुकी थी, उस पुराने शहर की। उस शहर की जहाँ मेरी नानी रहती थीं। जहाँ मैं बचपन के पंख लगाए नंगे पाँव भागती फिरती थी। पति मुस्कुराए, बोले, “अभी भी तो वही छोटी बच्ची लग रही हो।” उनकी मुस्कान में अपनापन था, और मेरे भीतर किसी स्मृति का दरवाज़ा खुल गया। मुझे नानी का घर याद आया, एक हवेली जैसा विशाल मकान। चारों ओर कमरे, बीच में खुला चौक। जहां धूप भी बच्चों के साथ खेला करती थी। गर्मी की छुट्टियों में हम सब वहाँ इकट्ठे होते, ममेरे, मौसेरे भाई-बहन और घर की दीवारों को हमारी हंसी की गूंज से सराबोर रहतीं। हम गुड्डे-गुड़िया के ब्याह रचाते, घरों से बर्तन चुरा लाते और छुपकर बरामदों में पकवान बनाते। चौक में बैठकर नानी की पुरानी साड़ी में कोई दुल्हन बना देते। मैंने पति की ओर देखा, मन में एक चाह उठी , “क्या हम इस गली में मुड़ सकते हैं?” “क्या हम… नानी के घर जा सकते हैं?” पर अगले ही क्षण संकोच ने दस्तक दी। क्या बचपना है ये? अब मैं नानी बनने की उम्र में अपनी नानी का घर देखने की उमंग लेकर बैठी थी। पर फिर लगा हाँ, बचपन को एक बार फिर जी लेने में क्या हर्ज़? पति ने मेरी आँखों की चमक को पढ़ लिया। गाड़ी ने मोड़ ले लिया, और हम पुराने मोहल्ले में दाख़िल हो गए। गली अब पहले जैसी नहीं रही थी। छोटी सी तंग सड़क, अब गाड़ियों से भरी पड़ी थी। वो घर जिनके आँगन कभी तुलसी के चौरे से महकते थे, अब कोठियों में तब्दील हो चुके थे। बड़े-बड़े दरवाज़े थे, बड़े-बड़े गेट, लेकिन लोग कहीं नहीं थे। कहाँ गए वो लोग?
वो गर्मियों की शामें, जब लोग घर के बाहर पानी का छिड़काव करते थे।
चारपाई बिछाकर बैठ जाते थे, पंखा झलते और बतियाते थे। अब वहाँ चुप्पी पसरी थी, जैसे किसी ने ग़म का कंबल ओढ़ा दिया हो। मैं ढूंढ़ रही थी सरोज दीदी को, जो हर शाम बच्चों को शर्बत पिलाया करती थीं। कहाँ गई वो मिठास?
मैं ढूंढ़ रही थी कुसुम और सुधा को, वो जो मेरी हमउम्र थीं, जिनके साथ हम छत पर देर रात तक अंताक्षरी खेला करते थे।
हमारे हँसने की आवाज़ें अब दीवारों से टकराकर लौट नहीं रही थीं। मैं ढूंढ़ रही थी अपनी नानी को, जो शाम की चाय के साथ,दिन की बची रोटियों को तवे पर सेंककर उनपर घी लगाकर हमें प्यार से खिलाती थीं। घी की वो सोंधी महक आज भी मेरी ज़ुबान पर उतर आई थी।
और आंखें, आंखें तो उन रोटियों की गर्मी से भीग गई थीं।। मैं खड़ी थी, एक ऐसे मोड़ पर जहाँ समय ने एक सदी गुज़ार दी थी, और मेरे भीतर का बच्चा, बस उस आँगन की मिट्टी को फिर से छू लेना चाहता था।
शिखा खुराना ‘कुमुदिनी’