रामायण की कथा भजन के माध्यम से मेरे शब्दों में – 9 – रूपल दवे “रूप”

जनक दुलारी कुलवधू दशरथजी की,
राजरानी होके दिन वन में बिताती है,
रहते थे घेरे जिसे दास दासी आठों याम,
दासी बनी अपनी उदासी को छुपाती है,
धरम प्रवीना सती, परम कुलीना,
सब विधि दोष हीना जीना दुःख में सिखाती है,
जगमाता हरिप्रिया लक्ष्मी स्वरूपा सिया,
कूटती है धान, भोज स्वयं बनाती है,
कठिन कुल्हाडी लेके लकडियाँ काटती है,
करम लिखे को पर काट नही पाती है,
फूल भी उठाना भारी जिस सुकुमारी को था,
दुःख भरे जीवन का बोझ वो उठाती है,
अर्धांगिनी रघुवीर की वो धर धीर,
भरती है नीर, नीर नैन में न लाती है,
जिसकी प्रजा के अपवादों के कुचक्र में वो,
पीसती है चाकी स्वाभिमान को बचाती है,
पालती है बच्चों को वो कर्म योगिनी की भाँती,
स्वाभिमानी, स्वावलंबी, सबल बनाती है,
ऐसी सीता माता की परीक्षा लेते दुःख देते,
निठुर नियति को दया भी नही आती है।।
इस लाइन में कहा गया है की जनक राजा की दुलारी और दशरथ राजा की कुलवधु और राजरानी (राजा की पत्नी या रानी)हो कर भी कैसे वन में एक एक दिन बिताती हैं,जिसको आठों याम (हर समय)दास दासिया घेरे रहते थे वह खुद दासी बनकर अपनी उदासी को अपने दुखों को छुपाती है,धरम में प्रवीना (कुशल)सती(पति परायण स्त्री, साध्वी) परम कुलीना, (उच्च कुल की)सारी विधि(बाते)बिना दोष(अपराध) के भी दुख में कैसे जीना है वो सिखाती है, जगमाता,(सर्व जगत की माता)
हरिप्रिया(श्री हरि विष्णु की पत्नी)लक्ष्मी का स्वरूप माता सीता कूटती है धान और भोजन भी खुद ही बनाती है,कठिन कुल्हाड़ी लेकर लकड़ियां काटती हैं पर अपने कर्म में लिखे दुखों को काट नहीं पाती हैं,जिस सुकुमारी (कोमल नारी)के लिए फूल भी उठाना भारी था,आज वही अपने दुख भरे जीवन का बोझ उठा रही है,वो रघुवर की अर्धांगिनी(पत्नी) हो कर भी धीरज धारण करते हुए,पानी भरती है पर नीर नैन में न लाती है यानी अपनी आखों में अश्रु भी नहीं आने देती,जिस प्रजा के अपवादों (बदनामी)के कुचक्र(षड्यंत्र) में वो चाकी(चक्की)पिसती है और अपने स्वाभिमान को बचाती है यानी अपने दुखो की चक्की को पिसती है।अपने बच्चों को वो कर्म योगिनी की भाँती यानी अपने कर्म में काम में लीन होकर स्वाभिमानी,स्वावलंबी,(आत्मनिर्भर)
सबल (बलवान) बनाती है, ऐसी सीता माता की परीक्षा लेते,दुख देते निठुर नियति यानी कठोरहृदय वाले लोगों को दया भी नहीं आती हैं।
रूपल दवे “रूप”