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संस्मरण // देवेन्द्र सिंह की कलम से

संस्मरण // देवेन्द्र सिंह की कलम से

ऋतु प्रधान इस भारत वर्ष में ऋतुओं का आगमन हमारी जीवन शैली और मन मस्तिष्क को भी उसी भाॅति प्रभावित करता है जैसे इस पतित पावनी भारत भूमि और समस्त वसुधा को प्रभावित करता है । यूँ तो मैं शैशवकाल से ही प्रति वर्ष ऋतुओं के परिवर्तन के इस शाश्वत और प्राकृतिक घटनाक्रम को आप सबकी ही भांति देखता और महसूस करता आया हूँ लेकिन इस वर्ष निमाङ के इस प्राकृतिक रूप से समृद्ध एवम शहरी कोलाहल से दूर शान्त बियाबान में और माँ नर्मदा के आँचल में पावस ऋतु के आगमन को देखना और फिर चतुर्दिक प्रकृति के बदलते स्वरूप की निहारना अपने आप में एक अद्वितीय अनुभव है।

ग्रीष्म ऋतु की घनघोर तपन चैत्र मास से ज्येष्ठ मास तक इस समस्त निमाङ जनपद को अपने प्रकोप से एक शुष्क और दहकते अरण्य में परिवर्तित कर देती है। इस समग्र क्षेत्र में बस माँ नर्मदा के तट पर ही कुछ सुकून महसूस होता है अन्यथा सूर्य का प्रखर तेज ,पतझङ से अभिशप्त सागौन के वृक्षों का विन्ध्याचल एवम सतपुड़ा की पर्वत श्रृंखलाओं , घाटियों तथा मैदानों में चार जिलों (खण्डवा, खरगौन, बुरहानपुर और बङबानी) तक विस्तारित वन क्षेत्र और यत्र तत्र सुलगती दावानल इस अंचल को बेहाल किये रहते हैं। सूर्यास्त के पश्चात भी गर्म लू के थपेड़े असहनीय से प्रतीत होते हैं। ऐसे में जब आषाढ मास में पावस ॠतु का आगमन इस क्षेत्र में होता है और नीले अम्बर को एकाएक घनघोर काले मेघ अपने आगोश में लेकर दिनकर के प्रखर रश्मियों से महीनों तक तप्त धरा पर बरसने लगते हैं तो जहाँ एक ओर निमाङी जनता का मन मयूर आल्हादित होकर नृत्य करने लगता है तो दूसरी ओर भीषण ग्रीष्म की मार से झुलसी धरा बङी तीव्रता से प्रकृति की गोद को हरीतिमा से आच्छादित करने लग जाती है और देखते देखते चन्द दिनों में ही निमाङ का बियाबान अरण्य नन्दन कानन में परिवर्तित होने लगता है विन्ध्याचल की पर्वत श्रेणियाँऔर सतपुडा के पठारी शिखर और घाटियाँ बेशुमार हरीतिमा के आभूषण से लदे किसी नई नवेली दुल्हन की तरह सजी धजी और मनमोहक प्रतीत होने लगती हैं। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में वर्षा ऋतु के शायद इसी रूप को देखकर लिखा होगा:

नव पल्लव भये विटप अनेका,
साधक मन जस मिलें बिबेका।

मुझे अपने बचपन से किशोरावस्था तक के वर्षा ऋतुओं के वे दिन याद हैं जब हमारे बृज क्षेत्र सहित समस्त उत्तर भारत में भी पावस ऋतु के महीनों में अधिक जल वृष्टि होती थी और कभी कभी तो सप्ताह भर तक निरंतर वर्षा होती रहती थी समग्र क्षेत्र जल प्लावित हो जाता था गाँव से आवागमन के समस्त मार्ग जल भराव के कारण बन्द हो जाते थे स्कूलों में अवकाश घोषित हो जाता था। अतिवृष्टि से फसलें भी तबाह हो जाती थी ।गाँव का तालाब लबालब भर जाता और गाँव वासी अपने पालतू पशुधन के साथ तालाब में आनन्दित हो जल विहार करते थे। कैसा सरल सहज और मनोरम दृश्य होता था। उत्तर भारत और विशेष रूप से हमारे क्षेत्र में वर्तमान पीढी के लिए पावस ऋतु के अतीत के वे दिन अब कल्पनातीत ही हैं। लेकिन सच मानिये अपने बाल्यकाल से किशोर होने या कहें कि उच्च शिक्षा के लिए गाँव छोडने तक वर्षा ॠतु में कच्ची मिट्टी और फूँस के झोपड़ों से बने अधिकांश घरों वाले गाँव छोटी बल्लभ (अलीगढ ,उप्र) में बिताये दिन और उनकी मधुर स्मृतियाँ मेरे जीवन की वो थाती हैं जिसमें से आज भी मातृभूमि की उस पावन माटी की सोंधी गन्ध आती है जो मेरे अन्तर्मन को गहराईयों तक सुवासित कर जाती है।

इस बार बहुत समय बाद निमाङ में पावस ॠतु में घनघोर वर्षा का अपने गाँव और बाल्यकाल वाला वही वातावरण और आनन्द मिलने से मेरा मन मयूर भी आल्हादित हो उठा है और बरबस ही यह तुच्छ लेखनी इस संस्मरण को लिपिबद्ध करने के लिए मचल उठी है। दो सप्ताह पूर्व खंडवा जिले के इस पुनासा क्षेत्र में तथा इन्दिरा सागर बाँध के उपरी जलग्रहण क्षेत्र में एक सप्ताह तक निरंतर पानी बरसता रहा और समस्त क्षेत्र जल प्लावित हो उठा , बाँध लबालब भर गया । बाँध के 12 द्वार खोलने पङे ।ऐसा प्रतीत हुआ जैसे माँ नर्मदा ने अपनी धारा पर लगायी कृत्रिम मानवीय मर्यादा को मानने से इन्कार कर दिया हो। जल बरसाते काले मेघों के बीच समस्त मानवीय बंधनों को धता बता के जब माँ नर्मदा की शुभ्र धवल धारा बाँध से निकली तो अत्यंत मनभावन और नयनाभिराम दृश्य उपस्थित हो रहा था । ऐसा लग रहा था कि जैसे चिरकाल से झूठी मानवीय मर्यादाओं के बन्धन को तोङ कर कोई विरह में दग्ध और व्यग्र प्रेयसी अपने सच्चे प्रेमी से मिलने जारही हो।

निमाङ क्षेत्र के खण्डवा जनपद में इंदिरा सागर बाँध के द्वार खुलना और नर्मदा की धारा का अपने स्वच्छंद रूप में बहना इस क्षेत्र में पावस ॠतु का यौवन काल प्राप्त करने जैसा है। हर तरफ जल प्लावित भूभाग, छोटे बङे नदी नाले और सरोवर अपनी क्षमता से अधिक जल समेटे हुए लबालब भरे बहुत सुन्दर प्रतीत होते हैं। यहाँ भी तुलसीदास जी एक चौपाई स्मरण हो आ रही है:

क्षुद्र नदी जल भरि चलीं तोराई,
जस थोरेहुँ धन खल इतराई।
भूमि परत भा ढाबर पानी ,
जनु जीवहि माया लपटानी ।

वेसे तो आर्यावर्त में प्रत्येक ऋतु अपने आप में महत्वपूर्ण है, लेकिन जहाँ बसन्त ऋतु को ऋतुओं का राजा कहा जाता है तो पावस को ऋतुओं की रानी का दर्जा हासिल है। पावस ऋतु जीवन दायिनी है धन धान्य और जल का पावस ऋतु से अमिट नाता है जिनके बिना मानवीय जीवन की कल्पना भी नही की जा सकती। वर्तमान युग में पावस ऋतु की उपयोगिता का एक नया आयाम भी अति महत्वपूर्ण है और वह है जलविद्युत का महत्वपूर्ण स्रोत होना। हम हिन्दी भाषी क्षेत्र के विद्यार्थियों ने बचपन में एक कहानी पढ़ी थी “हार की जीत” जिसमें लेखक एक जगह लिखता है ” माँ को अपने बेटे और किसान को अपनी लहलहाती फसल को देख कर जो आनन्द आता है वही आनन्द बाबा भारती को अपने घोङे सुल्तान को देखकर आता था” । मैने लगभग उसी प्रकार का वही आनन्द बाँध के लबालब भरने पर यहाँ इन्दिरा सागर प्रोजेक्ट के प्रमुख श्री अशोक कुमार के चेहरे पर भी देखा और महसूस
किया। निमाङ की पावस ॠतु का यह भी एक नया आयाम है यद्यपि यहाँ उत्पादित जलविद्युत समग्र राष्ट्र को प्रकाशित करने के काम आती है परन्तु उससे अर्जित धन विभिन्न माध्यमों से मप्र में अपेक्षाकृत कम विकसित निमाङ क्षेत्र की आर्थिक स्थिति के उन्नयन में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है और माँ नर्मदा की जीवन दायिनी सरिता होने के कालजयी एहसास को नूतन रूप में में जीवन्त रखे हुए है। संस्मरण के साथ एक छायाचित्र प्रस्तुत है। एक विनम्र प्रस्तुति।

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