कनखियों से देखतीं हैं मुझे मेरे ससुराल की स्त्रियाँ // सुप्रसिद्ध लेखिका ,कवियित्री व शिक्षिका डॉ निर्मला शर्मा की कलम से
कनखियों से देखतीं हैं मुझे
मेरे ससुराल की स्त्रियाँ // सुप्रसिद्ध लेखिका ,कवियित्री व शिक्षिका डॉ निर्मला शर्मा की कलम से
कनखियों से देखतीं हैं मुझे
मेरे ससुराल की स्त्रियाँ
अपने घूंघट को थोड़ा टेढ़ा करके
आधा मुँह छुपाए रहतीं हैं
एक आँख से देखतीं हैं
फिर करतीं हैं इशारों- इशारों में बातें
एक दूसरे से
कहतीं हैं लो आ गई वह शहरी बहू
मुझे देखकर मुँह पिचकातीं हैं
उन्हें नहीं पसंद गाँव में कोई बहू
घूंघट थोड़ा कम करें, ऊंची एड़ी की चप्पल पहने
फ्री पल्लू की साड़ी बांधे
एक दूसरे से बतीयातीं हैं
कहती हैं – बिना घूंघट में बहू अच्छी नहीं लगती
बेवजह देतीं हैं मुझे उलाहने
कहतीं हैं कभी खेत खोद कर देखो
कभी गोबर डालकर तो देखो तो जाने
कितना मुश्किल हैं यह सब
मन ही मन खींझतीं हैं
उलाहने तो सिर्फ मन की भड़ास है
मुझे उलाहने देकर मन हल्का कर लेतीं हैं
मैं उनकी आंखें पढ़ती हूँ और
मुस्कुरा कर आगे बढ़ जाती हूँ
उनकी आंखें कुछ और और
मन कुछ और कहता है
वे भी जानना चाहतीं हैं कंप्यूटर चलाना
वे भी जानना चाहतीं हैं कविता क्या होती है ?
वे भी लिखना चाहती हैं कविता में
अपने हिस्से का सुख अपने हिस्से में
वे भरतीं हैं कुएं से पानी
सूततीं हैं गोबर पशुओं के थान से
लिपतीं हैं मिट्टी से आंगन
चलातीं हैं हंसिया कुदाली खेत में पर
मन में स्वप्न अनगिनत हैं
कुछ कर गुजरने के
मुझे उलाहने देकर मन खुश कर लेतीं हैं
जब मैं बढ़ जाती हूँ थोड़ा आगे
वे मेरी ओर इशारा कर कह उठतीं हैं
अपनी बेटियों से
छोरियां ! तुम भी पढ़ लिखकर
इनकी तरह बनना आत्मनिर्भर
खुद कमाकर खाओगी तो सुखी रहोगी
हमारी तरह किसी के सामने
हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा
पल भर में मुझे दिया गया उलाहना
बन जाता है किसी के लिए प्रेरणा
मन प्रसन्नता से खिल उठता है
अब मुझे उनके उलाहने उलाहने नहीं लगते
डॉ निर्मला शर्मा