लड़कियाँ // सुप्रसिद्ध कवियित्री व लेखिका डॉ प्रियांकी की कलम से
जाड़े की सर्द कनकनाती बनारस की रात।अम्माजी बाहर हाॅल में सोफे पर पतली सी भागलपुरी सिल्क चादर ओढ़े पड़ी हैं।होठों पर कुछ बुदबुदाहट है।संभवतः अपने इष्ट देवता की भक्ति में तल्लीन।
“यहाँ काहे पड़ी हैं?पाला मार देगा।जाइए, सो जाइए भीतर।नेहाली ओढ़ लीजिए”,मैं हाॅल में आकर कहती हूँ।
“उहूँ, ठीक बानी”,सिर हौले से हिला देती हैं।चिंता में डूबी हैं।मुझे खुशी सी होती है,बहू के लिए इतनी सोच।
मैं फिर से जाकर अपने कमरे में लेट गई हूँ।नींद मुझे भी कहाँ आ रही?मेरी छोटी देवरानी पुणे में भर्ती है अस्पताल में।पहली दफह माँ बनने वाली है।कभी भी अच्छी खबर आ सकती है।पर फिलहाल तो सब हाथ जोड़े, चुप हैं।मेरी ननद का भी मेसेज बार बार आ रहा,मेरे फोन पर।खैरियत पूछ रहीं वहाँ की।शायद उनके ससुराल में भी सब सो चुके हैं।डिस्टर्ब नहीं करना चाहतीं उन्हें।
पतिदेव इंजीनियर है।आजकल वर्क फ्राॅम होम का जमाना है।दिन रात की तो अब कोई बात ही नहीं रही।पलंग पर ही कंबल ओढ़े लैपटॉप में लगे हुए हैं निर्लिप्त भाव से अपने काम में।
मेरा दो साल का बेटा मेरे बगल में ही गहरी नींद में सो रहा।कितना दैवस्वरूप चेहरा चमक रहा उसका अभी।आँख खुलते ही कहाँ जायेगी उसकी ये मासूमियत?दिन भर खुराफात का ये छोटा पैकेट सारे घर को सर पर उठाए रहेगा।अम्माजी तो सारा दिन उसके ही पीछे भागती रहेंगी।”ये खा,वो कर,वो मत कर,फलाना ढिमना”,मैं भी अपने कमरे से उनकी बातें सुनती रहूँगी।मैं भी लैपटॉप में व्यस्त रहती हूँ अपनी कंपनी के काम से।साँस लूँगी फुर्सत की तो बेटा मेरे आगे पीछे भागेगा।
खैर,देखिए कहाँ पँहुच गई मैं।औरतें अमूमन ऐसी ही होती हैं,किसी भी पद या ओहदे पर हों।दिमाग हर व्यस्तता के बीच भी घर और परिवार पर ही केंद्रित रहता है।
फिर से साँसे थाम लीं मैंने।मोबाइल की घंटी अब बजी कि तब बजी।पतिदेव कीपैड पर उंगलियाँ चलाते कहते हैं,”सो जाओ।कुछ होने पर भाई फोन करेगा ही।नाहक परेशान होती हो”।
कितना फर्क है न आदमी और औरत की सोच में।हम तीनों औरतें घबराई हुई हैं।उधर मेरे ससुर जी भी बगल के कमरे में खर्राटे ले रहे।आवाज यहाँ तक सुनाई दे रही।
“अम्माजी,आप फिर से दादी बन गईं और मैं बड़ी मम्मी।जच्चा बच्चा दोनों ठीक हैं”,फोन आते ही मैं किलकती हुई हाॅल में पहुंच कर अम्माजी को ये खुशखबरी सुनाती हूँ।
“अच्छा,का भइल”,लेटे लेटे अम्माजी मुझसे पूछती हैं।
“बिटिया हुई है अम्मा”,मैं कहती हूँ।
“मजाक काहे करत हौ”,हँसती हुई अम्माजी उठ बैठती हैं।”सच बोल दुलहिन”,वह कहती हैं।
मैं उनसे अक्सर इस बात पर मजाक करती ।घर में बिटिया के होने के फायदे बताती।बूढ़ी हड्डियों को मेरी बात नहीं रूचती बिल्कुल।आज भी उन्हें वैसा ही कुछ लग रहा।
“अरे नहीं अम्मा,इस बार मजाक नहीं कर रही।सच में बिटिया हुई है”,मैं उनको विश्वास दिलाना चाहती हूँ।
अभी तक उनका पोपला, गोरा,चमकता मुखड़ा अनायास फक्क हो जाता है।काला चेहरा लिए बुदबुदाती हैं,थोड़े गुस्से में हैं,”ई ना हो सकत।नियत दिन से पहिले होत है।बिटिया नहीं हो सकत।ठीक से सुना तूने,छोरी।”
मैं तो सन्न हूँ उनके हाव भाव पर।मेरी सारी खुशी न जाने कहाँ बह गई है।
“हाँ,हाँ”,मैं भी अब तड़पती मछली की तरह बात कर रही।
वो फिर से धम्म से लेट जाती हैं सोफे पर,चादर से मुँह ढक कर।मैं और भी हैरान, परेशान हो गई हूँ,उनकी इस तरह की अभिव्यक्ति से।
थोड़ी संयत करती हूँ खुद को।उनको गाल फुलाये छोड़कर मैं अपनी ननद को मैसेज करती हूँ।वो भी तो इंतज़ार में होंगी,”दीदी,बुआ बन गईं आप,बधाई हो।”।उधर से जवाब आता है,”तुम भी तो बड़ी अम्मा बन गई। तुमको भी बधाई। क्या हुआ?”
मैं लिखती हूँ,”लक्ष्मी आई हैं”।उसके बाद उनका भी कोई मैसेज नहीं।जैसे मौन व्रत धारण कर लिया हो।
अगली सुबह भी मुँह ढापे पड़ी हैं अम्माजी।मौन व्रत के साथ साथ निराहार व्रत भी धारण की हुईं।खाने की बात करते बिफर गईं।”बहुत सर्दी और बुखार है।जी नहीं कुछ खाने को”,छोड़ दिया अंततः रूठे बच्चे को।पता नहीं ,कब तक सोग मनाएंगी बिटिया जन्म का ।मेरा आक्रोश भी अब धीरे धीरे बढ़ रहा।
फोन पर बातें कर रहीं किसी से।संभवतः मेरी चाची सास हैं,गाँव में रहती हैं।”कइसे सोहर गाऊँ,बेटी बियौले बाड़ी”,दूसरी ओर से आती आवाज हाॅल से गुजरते हुए सुनी मैंने।
हम किस काल में जी रहे।बुर्जुआ मानसिकता अपनी पीठ पर लटकाए चल रहे अभी तक,विक्रम के बैताल की तरह।
पूजा घर में पँहुचीं हूँ नहा धोकर तो सारे भगवान भी चादर से ढके हैं।सौरी गृह में पूजा नहीं होती।यह मालुम था।पर ऐसा,चादर से ढकना!ईश्वर से भी नाराजगी, उनका क्या कसूर!
अम्माजी से कारण पूछा तो कहती हैं,”हम ऐसे ही करते हैं बेटी के जन्म पर।सिखाऊँगी तुझे,तो न आगे भी ये रीत निभायेगी।”
मैं निरूत्तर हूँ।मन ही मन कहती हूँ,”ये रीत तो आपके साथ ही चली जायेगी अम्मा।माफ कर देना मुझे।”
झाड़ू देते हुए कामवाली बोल रही,”क्या चाची,कुछ तो खर्चा पानी कीजिए। लक्ष्मी माँ साक्षात आईं हैं आपके यहाँ।कम से एक मिठाई ही सही”।
मैं चिंता में हूँ,कब खायेंगी अम्माजी खाना।चौबीस घंटे होने को आये।
“चुप कर बड़बोली,जाने ना जैसे तू।अभी खुशियाँ मनाने से भगवान को भी गलतफहमी हो जावे है।सोचेगा, अच्छा बड़े खुश हैं सब।अगली बार भी बेटी ही देगा”,कामवाली को झिड़कते हुए अम्माजी कहती हैं।
सुना है,ननद के जन्म पर भी कोई सोहर नहीं गाया गया था।सब खूब रोये थे।तीन भाइयों की इकलौती,सबसे बड़ी बहन।
अब रहा नहीं जा रहा मुझसे।मुँह फेरी अम्माजी को आवाज लगाती हूँ ,थोड़ी तेज आवाज में,”अम्माजी,अम्माजी!”
“हम्म”,धीरे से कहती हैं फिर मजबूर होकर। शायद फिर मैं खाने को मनुहार करूँगी,ऐसा सोचकर।
मैं कहती हूँ,तीव्र,सधे हुए स्वरों में,”हमारे सबसे छोटे देवर जी का ब्याह किसी लड़के से ही कर देना ,अम्मा।लड़कियाँ तो अब वैसे भी मिलने से रहीं।”
डाॅ प्रियाँकी
जमशेदपुर