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नवलिका – प्रतीक्षा / जानेमाने लेखक व कवि नरेन्द्र त्रिवेदी की कलम से

 

उस दिन भी नटुचाचा हमेशा की तरह शामको समय पर रामपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे और चार बजेकी ट्रेन में अपने बेटे गौतमके आनेका इंतजार करने बैठे. दस साल से यही उनकी दिनचर्या बन गई थी।

चाचाजी जब स्टेशन आते थे प्रसन्न मुद्रा में आते थे वो सबको पता था। लोग चाचा से पूछते थे और चाचा खुशी से जवाब देते थे। फिर गाड़ी चली जाने के बाद… वह निराश चेहरे के साथ बिना किसी से बात किए घर वापस लोट जाते थे। चाचाकी यह दिनचर्या सब जानते थे।

रामपुर एक छोटा सा गाँव था। नटूचाचा दर्जीका काम करते थे, कपड़े सिलते थे। नटूचाचाका ईमानदार स्वभाव, ईमानदारी और लोगोंका भरोसा उन्हें खूब काम दिलाता था। इस प्रकार दर्जीका काम करके परिवारकी जिविका ओर घरसंसार चलता था। नटुचाचाने कड़ी मेहनत करके, अपने स्वास्थ्यकी परवाह किए बिना, अपने बेटे गौतमको उसकी इच्छा के अनुसार शहरमें पढ़ने के लिए भेजा और उसे स्नातक बनाया। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद गौतम घर आया और बोला, “बापूजी, अब मुझे शहरमें नौकरी करनी है, शहर में अच्छी नौकरी और घर ढूंढलूंगा; फिर चार बजे आने वाली ट्रेन से आप दोनोंको मेरे पास शहर ले जाऊंगा।”

शहर जानेके बाद गौतमकी कभी आने या न आने की कोई खबर नहीं थी। लेकिन नटुचाचाको विश्वास था इसलिए वह हरदिन स्टेशन पर आकर अपने बेटे का आनेका इंतजार करते थे। लेकिन गौतम बर्षों तक नहीं आया।

एक दिन नटुचाचाने अपनी पत्नी से कहा,”लगता है बेटा किसी परेशानी में है। मैं शहर जाकर उसका हाल देखलू।”

“लेकिन शहरमे रहने के लिए जगह के बिना आप उसे शहर में कहां रहोंगे? फिर शहर भी आपके लिए अनजान है। मेरी मानो आप शहर जानेका बिचार छोड़ दो।”

“कोई बात नही में शहर नही जाऊंगा मगर गौतमने कहा था कि वह चार बजे की ट्रेनसे आएगा, इसलिए मैं हररोज स्टेशन जाऊंगा और उसके आने का इंतजार करूंगा।”

जैसे-जैसे समय बीतता गया और अपने बेटेकी प्रतीक्षा करते हुए, गौतमकी माँ अंततः निराशा के साथ स्वर्ग चली गईं। गाँव के अच्छे लोगोंने नटुचाचाकी जिम्मेवारी उठाली।

नटूचाचाने हररोज अपनी स्टेशन जानेकी दिनचर्या जारी रखी। उस दिन भी नटुचाचा समय पर स्टेशन पहुँचे और प्लेटफार्मकी बेंच पर बैठकर चार बजेकी ट्रेनका इंतज़ार करने लगे। चार बजेकी गाड़ी आकर चली गई, पांच बज गए फिर भी नटूचाचा बेंच से नहीं उठे।

अचानक स्टेशन मास्टर देखकर वह चाचाके पास आये। उसने चाचाको हिलाया, चाचा बेंच पर गिर गये। चाचा स्टेशन और इस नश्वर संसारको हमेशा के लिए छोड़ चूके थे। स्टेशन मास्टरने गांव वालों को इकट्ठा किया और नम आंखों से चाचाकी अंतिम क्रियाबिधि सम्पन्न की।

चाचाकी पोशाककी जेबसे दो पत्र मिले; एक पत्र गांव वालों और थाने के स्टाफके नाम था। उसमें चाचाने लिखा था कि, “मुझे एक रिश्तेदारकी तरह रखने के लिए आपका सबका बहुत-बहुत धन्यवाद।”

ओर दूसरा पत्र गौतम के आने पर उन्हें देने के लिए था।

एक दिन शाम के समय सूट-बूट पहने एक युवक स्टेशन के पास कार से निकला। इधर-उधर देखने पर नटुचाचा कहीं नजर नहीं आये। युवक स्टेशन मास्टरके कार्यालय में गया और पूछा…
“सर, क्या नटुचाचा आज स्टेशन नहीं आये?”
“भाई, तुम कौन हो?”
“सर, मैं नटुचाचाका बेटा गौतम हूं।” स्टेशन मास्टर ने बिना ऊपर देखे सुस्ती से जवाब दिया…
“चाचा अब स्टेशन नहीं आते।”
“क्यों नहीं आते?”
“वह दस साल से हररोज आते थे। लेकिन अब वह कभी नहीं आएंगे। वह भगवान बन गये है। लेकिन हाँ, अगर तुम गौतम हो, तो चाचाने तुम्हारे लिए एक पत्र छोड़ा है।” स्टेशन मास्टरने गौतमको पत्र दिया।
गौतमने पत्र पढ़ना शुरू किया…
“गौतम”।
“मैं यही नामसे संबोधित कर रहा हूं। मैने आपके अन्य सभी अधिकार माफ कर दिये हैं। आपकी माँ आपका सालो तक इंतज़ार कर रही थी, थक गई थी, फिरभी भाग्यशाली थी कि पाँच साल पहले शाश्वत पीड़ा से मुक्त हो गई। तुम आंसू मत बहाना ;अगर बहागें तो भी वो असली आंसू नहीं होंगे, सिर्फ दिखावे के लिए होंगे। और अंत में, इतना बताता हूं कि यदि आप इस पत्र को पढ़ेंगे, तो आप और मैं पिता-पुत्र के ऋण से मुक्त हो जायेंगे। मैं आपको सलाह नहीं दूँगा, लेकिन मैं आपको सुझाव दूँगा… अपने बच्चों को अपने जैसा मत बनाइयेगा। उन्हें अपने माता-पिता का कर्ज़ चुकाना सिखाईयेगा”

जब गौतमने आंखोंमें आंसू भरकर पत्र पढ़ा तो वह स्टेशन पर अकेला ही था। बाकी सभी लोग जा चुके थे, स्टेशन पर सन्नाटा था और अकेला गौतम आहें भर रहा था और सिसक रहा था, लेकिन गौतमको सांत्वना देने वाला कोई नहीं था।प्रकृति भी अंधेरेमे डूबकर छुप गई थी।

*नरेंद्र त्रिवेदी।(भावनगर-गुजरात)*

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