ठेस एक ऐसी भावना है जिसको लगती है वही इसका दर्द जनता है।

ठेस एक ऐसी भावना है जिसको लगती है वही इसका दर्द जनता है।
असमय,अचानक बिना कोई संकेत दिए अंजू के पति ने परिवार को सकते में छोड़ कर स्वर्ग गमन कर लिया।रस्म निभाने रिश्तेदार आए परंतु कार्य ख़त्म होते ही जाने का हिसाब लगाने लगे।बिना जाने वाले के बिलखते परिवार की चिंता किए हुए।
उस समय उसके दामाद भी काम से शहर के बाहर थे।वह और उसकी बेटी और उसका चार साल का बच्चा किसी तरह उस हृदयविदारक परिस्थिति का सामना कर रहे थे।रिश्तेदारों की जल्दबाज़ी देख कर उसने तीन दिन में ही कार्य समाप्त करवाने का निर्णय लिया।सभी रुके तो ज़रूर,पर शाम को ही अपनी मनपसंद जगह पर रात को रूकने चले जाते और अगले दिन आधा दिन बीतने पर आते।अंजू के परिवार का आँसू पोंछने वाला,आने जाने वाले लोगों को देखने और उसे काम में सहारा देने वाला कोई नही था,जबकि सहृदय और सहायक प्रवृति के होने के कारण उसके पति के उन सभी पर बहुत अधिक एहसान थे।
दामाद द्वारा क्रियाकर्म वर्जित बताने के कारण उसकी बेटी छोटे से बच्चे को ले कर उसके हाथ से क्रियाकर्म कराने के लिए पुरुषों के साथ बिलखते हुए अकेली घाट गई।ससुराल और मायके की किसी भी महिला ने उसके साथ जाना ज़रूरी नही समझा।बहुत नज़दीकी और ज़रूरी कई अपने तो समय की कमी या टिकिट न मिलने का बहाना करके आए ही नहीं।और कई तो हमें ख़बर नहीं दी कह कर अंजू के ऊपर ही दोषारोपण करके नहीं आए।क्या उस समय उनकी उससे ये आशा उचित थी?
ख़ैर सब काम ख़त्म होते ही तुरंत चले गए।उसके ठीक एक ही महीने बाद दीपावली, करवा चौथ, सभी के जन्मदिन, सभी की विवाह वार्षिकी, होली सब कुछ धूम धाम से मनाईं गईं।अच्छे कपड़े,भारी गहने पहने गए।छत पर लाइट दिए सब लगाए गए।जबकि सनातन धर्म में परिवार वालों के लिए एक वर्ष शोक का मान कर यह सब निषिद्ध है।बच्चों बड़ों का भी घूमना फिरना,विवाह,उत्सवों में जाना लगा रहा।अंजू के मायके और पति के ,दोनों के ही परिवार वाले इतने मस्त और बेपरवाह हो गए कि किसी को होश ही नहीं है कि हमारा ही एक परिवार अचानक आई विपदा से बहुत गमगीन भी है।अंजू ने अपने आप को समेट लिया और विभिन्न गतिविधियों में अपना मन लगाने लगी।बाद में रिश्तेदार उसपर ही स्वभाव बदल जाने का दोषारोपण भी करते रहे।
रिश्तेदारों के इस रवैये ने अंजू के परिवार में सभी के मन को अत्यधिक ठेस पहुँचाई है।समझ नहीं आता दुनिया कैसे इतनी स्वार्थी हो सकती है कि जिससे इतनी अधिक सहायता पाई थी उस इंसान के परिवार की ख़ैर ख़बर लेना भी मुनासिब नहीं समझा।
अलका गर्ग,गुरुग्राम