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लघुकथा — बदलते परिवेश // लेखक नरेश चंद्र उनियाल

 

“सर आपको प्रिंसिपल सर बुला रहे हैं।” चपरासी रामनाथ मुझे ही सम्बोधित करके कह रहे थे।
“ओके” कहते हुए मैं प्रधानाचार्य कक्ष की ओर चल दिया।
“सर मे आय कम इन?”
“आइये उनियाल सर” प्रधानाचार्य का स्वर उभरा- आपके खिलाफ शिकायत आयी है उनियाल जी… अभिभावक आपसे नाराज हैं।”
म.. म.. म्म. मैंने ऐसा क्या किया सर? मुझसे गार्जियन्स की नाराजगी क्यों?
“कल परसों आपने कुछ छात्रों को पढ़ाई के लिए डांटा था?”
“जी सर… डांटा तो था। इसमें क्या समस्या है सर? हम बड़ी मेहनत से बच्चों को पढ़ा रहे हैं.. वे लापरवाही करेंगे तो डांटना तो जायज है न ?” मैंने पूछा।
“नहीं उनियाल जी… यह डांटना कभी जायज हुआ करता था… अब बिल्कुल नहीं.. आपको किसी भी छात्र/छात्रा को डांटने फटकारने का कोई अधिकार नहीं है। आपको सिर्फ पढ़ाना है.. और वह भी सिर्फ प्यार से, छात्र चाहे काम करें या नहीं… मैंने अभी अभिभावकों को समझा दिया है कि आगे से ऐसा नहीं होगा। समझे??
“जी समझ गया।” डूबते हुए निराश शब्दों में बमुश्किल कह पाया था मैं… और उस कक्ष से बाहर आ गया।
मैं काफ़ी कुछ समझ गया था…. यह भी कि ‘गुरु कुम्हार सिख कुम्भ है’ वाली सूक्ति पिछली पीढ़ी तक के ही लिए लिखी गई थी… अब हमारा परिवेश बदल रहा है। पहले बच्चे का भविष्य संवारना येन केन प्रकारेण सिर्फ अध्यापक की जिम्मेदारी होती थी, अब वह जिम्मेदारी माता-पिता और मोटी ट्यूशन फीस ने ले ली है।
वह समय बहुत पीछे छूट चुका है, जब छात्रों को अध्यापक अपना बच्चा समझकर पीटता था और उसे निखारता था…
वास्तव में हमारा परिवेश बदल रहा है /बदल गया है।
नरेश चन्द्र उनियाल,
पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखण्ड।

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