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लेख – ‘मन’ // लक्ष्मी चौहान

‘मन !तेरी गति कितनी विचित्र है, कितनी रहस्य से भरी हुई, कितनी दुर्भेद्य। तू कितनी जल्दी रंग बदलता है? इस कला में तू निपुण है। आतिश -बाज की चर्खी को भी रंग बदलते कुछ देर लगती है, पर तुझे रंग बदलने में उसका लक्षांश समय भी नहीं लगता।’
ये चंद पंक्तियाँ प्रेमचन्द के उपन्यास ‘निर्मला’ से ली गई हैं।,1997 में जब मैंने ये उपन्यास पढ़ा था तब मुझे ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं थीं। और मैंने इन्हें अपनी डायरी में संजों कर रख दिया था।
मन तब भी गतिशील था और आज भी है। अन्तर इतना है कि उसकी दिशा बदल गई है। समय और जरूरत के साथ सबको बदलना पड़ता है। मन एक ऐसी अदृश्य शक्ति है जो दिखाई तो नहीं देती परन्तु हमारे पूरे जीवन को प्रभावित करती है। मन ही है जो हमारी सोच, निर्णय और कार्यों को संचालित करता है।
एक कहावत है कि ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’ अर्थात् मन में इतनी शाक्ति है कि मन ने यदि हार स्वीकार कर ली तो हम कभी जीत नहीं सकते, चाहे जीत हमारे सामने ही क्यों ना हो और यदि मन में ठान लिया कि जीत कर ली रहूँगा/रहूँगी तो दुनिया की कोई ताकत फिर हमें हरा नहीं सकती। जिन्दगी की आधी जंग तो हम मन से ही जीत जाते हैं।
मन ही है जिसके द्वारा हम वर्षों बीते पल को भी पूरी संजीदगी से की दुबारा जी लेते हैं। मन पर नियन्त्रण पाना आसान नहीं है। ये बेहद जटिल और चंचल होता है। मनुष्य का मन वायु और प्रकाश की गति से भी अधिक गतिमान होता है। मन के विचार ही हमें एक क्षण में श्रेष्ठता के शिखर पर पहुंचा देते हैं तो अगले ही पल पतन की गहराइ‌यों में भी धकेल देते हैं। मन को नियन्त्रित करने के लिए अभ्यास और वैराग्य की जरूरत होती है। ध्यान लगाकर (मेडिटेशन)भी मन को नियन्त्रित किया जा सकता है।
——-श्रीमती लक्ष्मी चौहान
कोटद्वार, उत्तराखंड

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