अपंग दिव्यांग और साअंग: एक चिंतन क्रमांक २ –सीमा शुक्ला

अपंग दिव्यांग और साअंग: एक चिंतन क्रमांक २
समाज में मूलत: यह धारणा व्याप्त है की अपंग जीव साअंगो से कमतर है. सा अंगों की इसी धारणा को समाप्त करने के लिए सरकार ने एक नवीन तथा सकारात्मक शब्द का चयन अपंगों के लिए किया. आज हम सभी प्रबुद्ध समाज के नागरिक इन अपंगों को दिव्यांग शब्द से सम्बोधित करते हैं. परन्तु चिन्तन का विषय यह है की क्या सम्बोधन के बदल जाने से अपंगों के प्रति समाज कि सोच की वस्तुस्थिति में कोई परिवर्तन हुआ है या नहीं.
समाज के अति सूक्ष्म निरीक्षण के पश्चात् मैंने अत्याधुनिक समाज में रहने वाले प्रबुद्धजनो की दृष्टि में आज तक अपंगों के लिए पाई जिसने वाली हेय दृष्टि में अतंर नही पाया. आज भी यदि किसी घर में किसी अपंग जीव का जन्म होता है तो समाज की दृष्टि में दो ही विचार आते हैं
प्रथम सहानुभूति का और द्वितीय हेयता का.
एक अपंग व्यक्ति को यदि, आप सहानुभूति या दया के भाव से देखते हैं तब, जैसा मैंने इस चिन्तन के प्रथम क्रमांक में बताया था की जीव शैश्ववास्था से ही अपने आसपास के पर्यावरण से सर्वाधिक प्रभावित होता है, तो ये अपंग व्यक्ति भी सहानुभूति के आदि हो जाता है. इस तरह से वो अपंग जो सहानुभूति के साथ पलता बढ़ता है वह कभी भी दिव्यांग नहीं बन पाता. वह हमेशा ही समाज से सहानुभूति की अपेक्षा करता है. इसी प्रकार यदि यही प्रबुद्ध समाज इन अपंग लोगों को हेयता की दृष्टि से देखता है तब भी एक अपंग जीव दिव्यांग जीव में परिवर्तित नहीं हो पाता. वो जीव समाज की इस हेयता से इतना प्रभावित होता है की वह अपने आप की सभी क्षमताओ पर अविश्वास ही जता पाता है. उस जीव में खुद पर अविश्वास इस तरह दिन प्रतिदिन इतना बढ़ जाता है की वह फिर दिव्यांग नहीं बन पाता. अतः साअंगो कि सहानुभूति तथा हेयता दोनों ही स्थितियों अपंगो को दिव्यांग होने में बाधक बन जाती है.
सीमा शुक्ला