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महाकुम्भ : विवादों की भेंट चढ़ा एक धार्मिक आयोजन — राजेश कुमार ‘राज’

 

 

हमारे देश में चार स्थानों पर प्रत्येक १२ वर्ष पश्चात् कुम्भ और प्रत्येक ६ वर्ष पश्चात् अर्धकुम्भ मेले का आयोजन करने की परंपरा है. यह चार स्थान हैं; गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों के संगम पर बसा उत्तर प्रदेश का प्रयागराज, उत्तराखंड में गंगा किनारे बसा हरिद्वार, शिप्रा नदी के तट पर बसा मध्य प्रदेश का उज्जैन तथा महाराष्ट्र में गोदावरी नदी के तट पर स्थित नाशिक शहर. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि कुम्भ का इतिहास बहुत पुराना है.

प्राचीन काल में देवताओं और दानवों द्वारा किये गए समुद्र मंथन और उस से प्राप्त अमृत कलश (कुम्भ) से सम्बंधित एक पौराणिक कथा है. इस कथा के अनुसार समुद्र मंथन से अमृत कलश की प्राप्ति पश्चात् उसे राक्षसों से बचाने की आवश्यकता आन पड़ी थी. अतः भगवान विष्णु ने इंद्र पुत्र जयंत को संकेत देकर अमृत कलश को ले कर भाग जाने का आदेश दिया. फलस्वरूप इंद्र पुत्र जयंत अमृत कलश को लेकर भाग खड़ा हुआ और दानवों ने उसका पीछा किया. इस दौरान अमृत की कुछ बूंदे छलक कर प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन और नाशिक में गिरी. तब से इन चारों नगरों में कुम्भ और अर्धकुम्भ मेलों का आयोजन तत्कालीन शासकों द्वारा और स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात सम्बंधित राज्य सरकारों द्वारा किया जाता रहा है. भारत में कुम्भ मेले का आयोजन कब से शुरू हुआ इसका कोई पुख्ता ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है. इस विषय पर विद्वानों के मध्य भी मत-मतान्तर हैं. कुछ का मानना है की कुम्भ मेले का आयोजन समुद्र मंथन के ठीक बाद से ही होता चला आ रहा है. कुछ विद्वान चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल (३२१-२९७ ईसा पूर्व) से भी इसके आयोजन का आरंभ मानते हैं. सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन के दौरान यूनानी राजदूत और यात्री मेगस्थनीज चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आया था. उसने अपनी भारत यात्रा का वृतांत इंडिका नामक पुस्तक में दर्ज किया है. हालाँकि इंडिका में उसने सीधे तौर पर कहीं भी कुम्भ या महाकुम्भ शब्द का उल्लेख नहीं किया है परन्तु उसने अपने यात्रा वृतांत में लोगों के भारी संख्या में गंगा नदी में स्नान करने और उनके द्वारा गंगा तट पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक आयोजनों का जिक्र अवश्य किया है. कुछ विद्वान मानते हैं कि कुम्भ मेले की शुरुआत आदि शंकराचार्य ने की थी. किन्तु सबसे सटीक और प्रमाणिक जो जानकारी मिलती है, उसके अनुसार सम्राट हर्षवर्धन के शासन काल (६०६ ईसवी से ६४७ ईसवी) के दौरान चीनी यात्री हेह्वेनसांग ६४३ ईसवी में प्रयागराज में आयोजित कुम्भ मेले में सम्मिलित हुआ था. अतः कुम्भ मेले के आयोजन का प्रारंभ ६४३ ईसवी से तो प्रामाणिक रूप से माना ही जा सकता है. कदाचित तब से ही कुम्भ और अर्धकुम्भ मेले इन चारों शहरों में सम्बंधित शासकों द्वरा आयोजित किये जाते रहे हैं.

इस वर्ष १३ जनवरी २०२५ से प्रयागराज के संगम तट पर महाकुम्भ मेला प्रारंभ हुआ जिसके शिवरात्रि २६ फरवरी २०२५ तक चलने का अनुमान है. अनुमान इस लिए कह रहा हूँ कि कुछ अपुष्ट ख़बरों के अनुसार उत्तर प्रदेश सरकार इस बार मेले की अवधि बढ़ाने पर विचार कर रही है. अब सवाल यह उठता है की यह कुम्भ है या महाकुम्भ. मै स्वयं कुम्भनगरी हरिद्वार का वासी हूँ और मैं कई कुम्भ और अर्धकुम्भ आयोजनों का साक्षी रहा हूँ. इस बार से पहले मैंने किसी भी सरकार को कुम्भ को महाकुम्भ के रूप में मनाते हुए नहीं देखा है. प्रत्येक १२ वर्ष पश्चात कुम्भ और प्रत्येक ६ वर्ष पश्चात् अर्धकुम्भ का ही आयोजन होते हुए देखा है. कभी भी कुम्भ के लिए महाकुम्भ जैसे शब्द का प्रयोग होते हुए ना सुना और ना ही देखा है. महाकुम्भ के विषय में सत्ता प्रतिष्ठान और कतिपय विद्वानों ने तर्क यह दिया, चूंकि यह कुम्भ १४४ वर्ष पश्चात् आया है इसलिए यह महाकुम्भ है. लेकिन कोई भी स्पष्ट रूप से यह रेखांकित कर पाने में सफल नहीं हुआ कि आखिर वो कौन से खगोलीय और ज्योतिषीय योग-संयोग थे जो १४४ वर्षों पहले घटित हुए और इस वर्ष उनकी पुनरावृत्ति हो रही है. इस परिपाटी के अनुसार तो अगला कुम्भ, जो कि वास्तव में १२ वर्ष पश्चात् ही आयेगा, को भी १५६ वर्ष पश्चात् आने वाला महाकुम्भ घोषित किया जा सकता है. चलिए नाम में क्या रखा है. महाकुम्भ अपने धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रयोजनों में सफल हो यही मेरी शुभकामना है. लेकिन शुरुआत से ही इस आयोजन को जिस तरह से विवादों ने घेर लिया है उस से महाकुम्भ की गरिमा को कुछ ठेस तो अवश्य ही पहुंची है.

अब बात कर लेते हैं इस महाकुम्भ से जुड़े कुछ खास विवादों की. सबसे प्रथम विवाद तो नाम का ही है कि यह कुम्भ है या महाकुम्भ. इसकी चर्चा मैं ऊपर कर ही चुका हूँ. पर इस नाम के पीछे के हेतु को समझने की जरुरत है. चूंकि कुम्भ में सैकड़ों श्रद्धालु आते हैं तथा कुम्भ नगरी में आकार खरीददारी करते हैं और विभिन्न प्रकार की सेवाओं के लिए सरकार को शुल्क और कर चुकाते हैं, अतः कुम्भ मात्र एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक आयोजन भर नहीं अपितु स्थानीय आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने का एक अवसर भी होता है. इस दृष्टि से लगता है कि अधिक से अधिक यात्रियों को आकर्षित करने के लिए शासन महाकुम्भ की इस नवीन अवधारणा को आगे लेकर आया और इसको खूब प्रचारित और प्रसारित भी किया. फलस्वरूप बड़ी संख्या में लोग प्रयागराज पहुँच कर संगम में डुबकियाँ लगाई.

मेले के प्रारंभिक चरण में ही आजाद समाज पार्टी के नेता चंद्रशेखर आजाद रावण ने वक्तव्य दे डाला कि लोग महाकुम्भ में पाप धोने जा रहे हैं. उनके इस बयान का चिरपरिचित अंदाज में बड़ा जोरदार प्रतिकार हिन्दू संगठनों की तरफ से हुआ. मैं यहाँ यह बताना जरुरी समझता हूँ कि माँ गंगा का एक नाम पापनाशिनी भी है. बुद्धिमान पाठक भली भांति समझ गए होंगे की गंगा को पापनाशिनी नाम से क्यों पुकारा जाता है. इस मामले में ज्योतिष्पीठ के शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द ने चंद्रशेखर आजाद रावण का तार्किक बचाव किया. विवादों की श्रंखला में शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वारानन्द ने यह वक्तव्य देकर कि प्रयागराज में गंगा का पानी आचमन और स्नान योग्य नहीं है तथा उत्तर प्रदेश सरकार हिन्दुओं को अशुद्ध जल में स्नान करा रही है, एक और विवाद को जोड़ दिया. शंकराचार्य को उनके बयान के लिए सोशल मीडिया पर जमकर ट्रोल किया गया और उनके तरह-तरह के मीम्स भी बनाये गए. खैर आस्था ऐसे मुद्दों पर सदैव ही भारी पड़ती आई है. लोगों ने शंकराचार्य के बयान पर ध्यान नहीं दिया और संगम में खूब डुबकियाँ लगाई.

तीसरा विवाद है महाकुम्भ में मुसलमानों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध. हालाँकि शासन के द्वारा जारी कोई भी ऐसी अधिसूचना या आदेश अभी तक दृष्टिगोचर नहीं हुआ है जिसके द्वारा महाकुम्भ क्षेत्र में मुसलमानों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगाया गया हो परन्तु कथित तौर पर अखाडा परिषद् के कुछ पदाधिकारीयों और कतिपय धर्मांध लोगों ने मुसलमानों को मेला क्षेत्र में प्रवेश ना करने की चेतावनी दी. इसको बड़े पैमाने पर प्रचारित और प्रसारित भी किया गया. अच्छी बात यह रही कि प्रयागराज के मुसलमान भाइयों ने इस चेतावनी को गंभीरता से लिया और मेला क्षेत्र से दूरी बनाये रखी ताकि उनकी उपस्थिति से शांति भंग ना हो और सांप्रदायिक सौहार्द बना रहे.

यह महाकुम्भ अपनी भव्यता के साथ साथ मोनालिसा की आँखों और कतिपय जवान और खूबसूरत साध्वियों जैसे कैलाशानंद गिरि जी की शिष्या हर्षा रिछारिया और पूर्व सिने तारिका ममता कुलकर्णी की महाकुम्भ में उपस्थिति और उनको लेकर साधुओं के बीच परस्पर मतभेद और मनमुटाव के लिए भी याद रखा जायेगा. ममता कुलकर्णी को किन्नर अखाड़े द्वारा महामंडलेश्वर की उपाधि देना भी विवादों में रहा. इस घटना ने एक पुरानी अफवाह कि मोटी रकम लेकर अखाड़े किसी को भी महामंडलेश्वर की उपाधि से नवाज देते हैं, को एक बार फिर से जीवित कर दिया. इसमें कितना सच है इसकी पुष्टि कर पाना असंभव नहीं तो मुश्किल जरुर है.

मौनी अमावस्या की रात (२९ जनवरी २०२५) मेला क्षेत्र में हुई भगदड़ और उसमें हुई अनेक यात्रियों की मौतों ने महाकुम्भ में सरकार द्वारा किये गए इंतजामों की पोल खोल दी और महाकुम्भ जैसे पवित्र आयोजन के नाम पर भी बट्टा लगा दिया. प्राप्त जानकारी के अनुसार इस भगदड़ में ३० यात्रियों की मौत हुई. लेकिन प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मौतों का आंकड़ा कहीं ज्यादा था. सरकार ने समय रहते दुर्घटना की पुष्टि नहीं की बल्कि इसे अफवाह बताना जारी रखा. तत्पश्चात सरकार मौत के आंकडे छिपाती हुई प्रतीत हुई. इस अवसर पर शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पर झूठ बोलने तक का आरोप जड़ दिया. मेरा यह स्पष्ट मानना है कि इतने बड़े आयोजन में जहाँ ४८ करोड़ लोगों के आने की संभावना हो और किसी एक खास दिन करोड़ों लोग एक सीमित से क्षेत्र में उपस्थित हों तो ऐसे हादसे होने की संभावनाएं हमेशा बनी रहती हैं. कोई भी सरकार जानबूझ कर अपने लोगों को मौत के मुंह में नहीं धकेलती. सरकार और प्रशासन युक्तिपूर्ण तरीके से श्रेष्ठ योजना बनाते हैं फिर भी ऐसा कदापि संभव नहीं है कि कोई अप्रत्याशित घटना कभी घटेगी ही नहीं. भूतकाल में भी कुम्भ के आयोजनों में ऐसी दुखद घटनाएँ घटी हैं और सम्बंधित सरकारों ने अपनी त्रुटि स्वीकार कर व्यवस्था को और अधिक चाकचौबंद बनाया. परन्तु कोई सरकार पूर्व में हुए कुम्भ आयोजनों के दौरान घटी इसी प्रकार की दुर्घटनाओं के पीछे छिपने की कोशिश करे तो उसका यह प्रयास नैतिकता का परिचायक नहीं हो सकता है. इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना के अतिरिक्त महाकुम्भ में आगजनी की भी अनेक घटनाएँ सामने आयीं. भगदड़ में यात्रियों की मौत के उपरांत बागेश्वर बाबा के नाम से प्रख्यात धीरेन्द्र शास्त्री ने एक विवादास्पद बयान दिया कि महाकुम्भ की भगदड़ में मरने वाले यात्रियों को मोक्ष की प्राप्ति हो गयी है. उनके इस ने मरने वालों के परिजनों के जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा काम किया. इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली. शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानन्द ने बागेश्वर बाबा के बयान की कड़ी निंदा की और कहा कि बागेश्वर बाबा भी आ जाएँ वें गंगा में धक्का देकर उन्हें भी मोक्ष दिला देंगे. इस प्रकार के वाद-विवाद के बीच सरकार पूरी मुस्तैदी के साथ बचाव और सहायता कार्यों को अंजाम देती हुई नजर आई.

भगदड़ की इस दुर्घटना के पीछे बहुत से कारण रहे होंगे. कुछ सामने आ गए हैं और कुछ अभी भी अदृश्य रह गए होंगे या उन पर पर्दा डाल दिया गया होगा. मुझे ऐसा लगता है कि मौनी अमावस्या होने के कारण स्नानार्थियों का अधिक संख्या में संगम क्षेत्र में उपस्थित होना एक अहम् कारण रहा होगा. इस संख्या विस्फोट के लिए १४४ वर्ष उपरांत महाकुम्भ पड़ने के संयोग का दावा भी उत्तरदायी प्रतीत होता है. कथित रूप से कई मार्गों को, वी.आई.पीज. का संगम तट तक निर्वाध आवागमन सुनिश्चित करने हेतु आम यात्रियों के लिए, बंद कर दिया गया था. कथित रूप से मार्ग में समुचित संख्या में पथ संकेतक पटों का भी आभाव था. इसके अतिरिक्त, यह भी सुनने में आया है कि किसी अधिकारी ने नियंत्रण कक्ष की जन संबोधन प्रणाली (पब्लिक एड्रेस सिस्टम) के माध्यम से घोषणा कर यात्रियों को स्नान के लिए संगम तट पर पहुँचने के लिए प्रेरित भी किया था. फलस्वरूप लाखों लोगों का एक रेला एक दिशा में बढ़ चला. अधिकतर रास्ते बंद थे. भीड़ बेकाबू होकर यहाँ-वहां सोये हुए यात्रियों को रौंदती हुई आगे बढ़ने लगी. पीछे से आ रहे धक्के और दबाव के कारण भी बहुत से बच्चे, बूढ़े और महिलाएं नीचे गिर गए और भीड़ उनको कुचलती हुई आगे बढ़ती चली गयी. अब तक लोग समझ चुके थे कि वें एक चक्रव्यूह में फंस चुके हैं जिस से निकलने के लिए उन्होंने ने रास्ते में पड़ने वाले अखाड़ों की छावनियों आदि में शरण लेनी चाही लेकिन उनके लिए दरवाजे नहीं खोले गए. ऐसे दावे सोशल मीडिया पर किये जा रहे हैं. लेकिन प्रसन्नता की बात यह है की इन सब कथित अव्यवस्थाओं और दुर्घटनाओं के बाद भी श्रद्धालुओं का महाकुम्भ में आना रुका नहीं. आस्थावान हिन्दू १४४ वर्ष पश्चात् पड़ने वाले महाकुम्भ के प्रत्यक्षदर्शी बनने के लिए लालायित दिखाई पड़े.

महाकुम्भ के चल रहे आखिरी चरण में भारत सरकार की अधीनस्थ संस्था प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट से प्रदेश सरकार को सांसत में डाल दिया. अपनी रिपोर्ट में प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने दावा किया है कि गंगा के पानी में पहले से कई गुणा ज्यादा मलमूत्र उपस्थित है और गंगा का पानी आचमन के लिए ही नहीं अपितु स्नान के लिए भी उपयुक्त नहीं है. इसका भी प्रतिकार हिंदूवादी संगठनों ने अपने चिरपरिचित अंदाज में किया और इसे हिन्दू धर्म और महाकुम्भ के विरुद्ध साजिश बताया. चूँकि रिपोर्ट केंद्र सरकार के एक संस्थान ने जारी की है, इसलिए प्रदेश सरकार ने इस मुद्दे पर मुंह खोलना उचित नहीं समझा. मुझे नहीं लगता कि भाजपा के केंद्र की सत्ता में रहते हुए उसकी कोई एजेंसी हिन्दू धर्म और महाकुम्भ के खिलाफ साजिश करने की हिमाकत कर सकती है. प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के परिपेक्ष में उत्तर प्रदेश शासन ने सुधारात्मक कदम उठाये हैं ताकि गंगा के पानी की गुणवत्ता को सुधारा जा सके. राजनैतिक गलियारों में कथित रूप से अफवाह आम है कि इस समय, जबकि महाकुम्भ मेला अपने उत्कर्ष पर है, इस रिपोर्ट का बाहर आना उत्तर प्रदेश सरकार को बदनाम करने की एक चाल है. यह अफवाह सच है या नहीं मेरे लिए इसकी पुष्टि करना असंभव है.

इन सब विवादों की मार झेलते हुए महाकुम्भ अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंच गया है. यदि प्रदेश सरकार महाकुम्भ के आयोजन को शिवरात्रि (२६ फरवरी २०२५) से आगे नहीं बढ़ाती है तो तय दिन-तारीख को इसका समापन होना निश्चित है. हाँ इतना अवश्य है कि यह महाकुम्भ धर्म, आस्था, अध्यात्म और संस्कृतियों के संगम के साथ-साथ अपने विवादों के लिए भी याद किया जाता रहेगा.

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