मौन होते बुजुर्ग – लघु कथा // सुनीता तिवारी

मैं जा रही हूँ ख्याल रखना घर का,बहू ने
निकलते समय जोर से दरवाजा उडकाते हुए कहा।
श्यामलाल अभी पत्नी के जाने का गम न भूल पाये थे।
अभी चालीस दिन भी नहीं हुए,अकेलापन काटने को दौड़ने लगा।
कितनी सेवा करती थी ब्याह कर आई दस बरस की उम्र में।
गुड्डे गुड़िया,गिल्ली डंडा, कंचे सब कुछ साथ खेला।
पता ही न चला कितनी दोस्ती हो गयी हमारी।
दिन निकलते गए, बेटा हो गया।
फिर भी हमारे लिए सुख- दुख में आगे खड़ी रहीं।
अब नहीं हैं एक-एक बात याद करके श्यामलाल के आँसू छलक पड़े।
किससे कहें दुखी मन की व्यथा?
बहू बाबूजी कह कर संबोधन नहीं कर सकती।
कोई इज्जत ही नहीं घर में।
क्या दो जून की रोटी के लिए इस घर में हूँ?
नहीं सुशीला की यादें बसी हैं यहाँ।
चौबीस घंटे दिखती है मुझे,
श्याम के बाबू
खट्टा न खा लेना,जुकाम हो जाएगा आपको।
अब कौन है बात करने वाला।
पोते की ज्यादा पढ़ाई,उसे वक्त नहीं।
बेटा सुबह निकले, रात घर आये।
बहू के ये नखरे,
इसी उधेड़बुन में श्यामलाल ने भोजन किया।
एक- एक निवाला रमा की याद करते खाया,
तुमने मुझसे वादा किया था रमा,
मुझे अकेला नहीं छोडोगी कभी,
फिर क्यों क्यों क्यों ?
खाकर सोए ही थे कि बहू आ गयी
इतनी देर क्यों लगाई द्वार खोलने में,
बस खाना, सोना दो ही तो काम है।
बुढऊ को द्वार खोलने में कष्ट होता है।
ज्यादा हुआ तो टी वी देखेंगे,
इतना बिजली बिल आता है कौन देगा यह सब।
खुद तो पेंशन का पैसा बीबी की बीमारी में झोंक दिया।
मालूम था बचेंगी नहीं फिर भी न माने,
अब दूसरों के सिर पर नाचेंगे।
श्याम लाल तो जैसे मौन हो गए थे कोई फर्क न पड़ता
कि कोई क्या बोलता है।
यही जले कटे ताने, और अपने प्रारब्ध वशात मिले दुख, चौबीस घंटे घूरती हुई आँखें बुजुर्गों को मौन कर देती हैं।
जब तक जीवन है जीना ही है।
जिंदा हैं तो बुजुर्गों का क्या कुसूर।
सुनीता तिवारी