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बंक, ब्लैकमेल और ब्लॉकबस्टर – एक मज़ेदार संस्मरण – // शिखा खुराना

 

कॉलेज बंक करने का एक अलग ही रोमांच होता है। लगता है जैसे कोई बड़ी चोरी कर रहे हों और अगर पकड़े गए, तो घर में महासंग्राम तय! लेकिन उस दिन मैंने सोचा नहीं था कि मेरी ही घर की फौज मेरे खिलाफ खड़ी हो जाएगी।
रणधीर कपूर की लफंगे फिल्म लगी थी, और दोस्तों ने इतना हाइप बना दिया कि जी नहीं माना। मैंने कॉलेज को राम-राम कहा और सीधे थिएटर का रुख कर लिया। टिकट लेकर अंदर घुसी ही थी कि लगा जैसे कोई खून सूखने वाला सीन चल गया हो—मेरा अपना भाई, स्कूल बंक करके, पहले से वहीं बैठा था!
अब भाई साहब तो जैसे धरती के राजा थे। वो बंक करे तो एडवेंचर, और मैं करूं तो अपराध! ऊपर से उसने तुरंत अपनी भाईगिरी दिखानी शुरू कर दी—”दीदी, पॉपकॉर्न के पैसे दो वरना घर पे सब बता दूंगा!” मेरी ही ब्लैकमेलिंग हो रही थी! मजबूरन अपनी मेहनत की कमाई—मतलब पॉकेट मनी—से उसे पॉपकॉर्न खिलाया, और भाई साहब मज़े से फिल्म का मजा लेते रहे।
लेकिन असली ट्विस्ट तब आया जब हम घर पहुंचे। मैंने सोचा था कि हम दोनों इस मिशन को गुप्त रखेंगे, पर नहीं! भाई ने आते ही घर में घोषणा कर दी, “दीदी ने कॉलेज बंक करके लफंगे देखी!” अब मेरे तारणहार माता-पिता की अदालत लग गई। लेकिन मैं भी कोई कम लफंगा नहीं थी—मैंने तुरंत पलटवार किया, “भाई भी तो स्कूल बंक करके वहीं था!”
अब पापा ने जो जवाब दिया, उसने सारा मामला ही उलटा कर दिया—”फिल्म का नाम ही लफंगे है, कुछ ढंग की फिल्म देखतीं, जैसे जय संतोषी मां या सुहाग!”
मतलब गलती बंक करने की नहीं, फिल्म के नाम की थी! अगर मैं कहती कि मैंने बॉबी देखी है, तो शायद माफ भी कर देते! लेकिन अब लफंगे का ठप्पा लग चुका था, और मेरा केस हमेशा के लिए लफंगा इतिहास में दर्ज हो गया।
और भाई? उसे कोई डांट नहीं पड़ी। क्यों? क्योंकि वो लड़का था, और लड़कों के बंक में एक अलग ‘मर्दाना स्वैग’ होता है, ऐसा परिवार का मानना था!
उस दिन मैंने सीखा कि बंक करने से बड़ा अपराध है गलत नाम की फिल्म देखना! और हां, अगर ब्लैकमेल करने वाला अपना ही सगा भाई हो, तो उससे ज़्यादा बड़ा अपराध कुछ नहीं!

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