*एक भैस की व्यथा* — राजेश कुमार राज

एक दिन मन को भैंस जी के पहुंचा कष्ट अनन्त,
अनुभव हुआ उसको जैसे हिल गये हों दिग्दिगंत।
कातर भाव से तब बोली भैंस अपने पालक से,
बात आवश्यक जरा पूछो अपने सब बालक से।
सेहत बनाते हो अपनी नित पीकर दूध मेरा,
पर करते नहीं हो तुम किंचित भी सम्मान मेरा।
अगर गाय है माता तो फिर मुझसे क्या है नाता,
गाय प्रेम तुम्हारा मुझे किंचित नहीं है भाता।
गाय है अगर मां तो मुझे भी मौसी तुम बुलाओ,
कर्ज यहां कुछ तो मेरे दूध का भी तुम चुकाओ।
दूध-दूध में तुम सब क्यों करते रहते हो अंतर,
क्या दूध में मारती है गाय कहीं कोई मंतर।
मेरे कटड़े के भाग का दुहते हो तुम सब दूध,
खाते मक्खन व मलाई काटते चांदी सब खूब।
कटड़ा मेरा हो जवान भैसा जब है बन जाता,
जोत कर उसको बुग्गी में माल है ढोया जाता।
हमारे लिये ना बोले कोई पंडित या नेता,
घुसें यदि खेत में तो मालिक डंडों से है धोता।
ना हमारे लिए है कहीं कोई भी भैंसशाला,
दूध पीते सब पर अंत में ना कोई रखवाला।
मुद्दे पर भैंसों के लड़े जाते हैं नहीं चुनाव,
वरना दुधारुओं में होता मेरा भी तो प्रभाव।
हो गये हैं निर्दयी सब दूध की डेयरी वाले,
इंजेक्शन लगा-लगा कर दूध सब खूब निकालें।
करते हो नित नये अत्याचार तुम महिष वंश पर,
बुढ़ियाने पर भेज देते हो कसाई के घर पर।
फिर कटती हैं हम सब अलग-अलग बूचड़खानों में,
पर पड़ती नहीं चीत्कार किसी के भी कानों में।
जीवन महिषकुल का होता है नित परम दुखदाई,
जीवन भर सेवा करी और गर्दन अंत कटाई।
विधाता अगला जनम मुझे तुम भैंस का ना दीजो,
जो देना है जनम मुझे तो बस गौ का ही दीजो।
© राजेश कुमार ‘राज’