तुम्हारे बस का नहीं है — अलका गर्ग

सर्दियों का हमेशा मौसम सैर सपाटे,
पिकनिक,खेल-कूद का होता है।बाहर जाड़े की गुनगुनी धूप में जगह जगह मनोरंजक आयोजन होते हैं ।
२६ जनवरी को ध्वजारोहण के बाद हमारी कंपनी के बड़े से मैदान में भी खाने पीने,खेल कूद का विराट आयोजन होता था जो कि मेरे पति ही करवाते थे।हरेक उमर के बच्चे,
औरतों और आदमियों के लिए कई तरह प्रतियोगितायें होतीं थीं और ईनाम भी मिलते थे।
एक बार एक प्रतियोगिता में औरतों को आँख पर पट्टी बाँध कर बीस कदम की दूरी पर लटकते हुए मटके को हाथ में लिए डंडे से फोड़ना था।
कई बार चल कर कदम गिन कर मैंने भी सभी की तरह एक अन्दाज़ बना लिया था।मेरा नंबर आया तो आँख पर पट्टी बाँधने के बाद मुझे गोल घुमा कर स्टार्ट की सीटी बजा दी गई ।
मेरा तो सारा अन्दाज़ धरा का धरा रह गया।किस दिशा में जाऊँ समझ ही नहीं आ रहा था।मैंने तो सामने सीध में बीस कदम नापे थे।सीधा ही तो खड़ा किया होगा सोच कर मैं लंबा डंडा हाथ में सीधा उठाये चल पड़ी।
अचानक सभी के चिल्लाने की आवाज़ें आने लगीं।मैंने सोचा कि सभी मेरा हौसला बढ़ा रहे है। मैंने गिने हुए दो कदम और बढ़ाये और डंडा मारने के लिए हाथ उठाया ही था कि अचानक पति देव की आवाज़ सुनाई दी रहने दो तुम्हारे बस का नहीं है !
फिर तो मैं अचानक आवाज़ की दिशा में घूमी और चल पड़ी अपने लक्ष्य की ओर और एक वार में मटके को धराशायी कर दिया।खूब तालियाँ बजीं क्योंकि पहले कोई महिला मटका नहीं तोड़ सकी थी।
दरअसल आँख पर पट्टी बाँधने से पहले मैंने देखा था कि मेरे पति मटके के स्थान के पास खड़े थे तो उनके बोलते ही मुझे दिशा भान हो गया था।
और पहले तो मैं डंडा हाथ में लिए हुए बिल्कुल विपरीत दिशा में जा कर दर्शक दीर्घा में घुस गई थी तो सभी मेरे डंडे की मार से अपना सर बचाने के लिए चिल्ला कर इधर उधर भाग रहे थे।
ख़ैर पहला ईनाम तो मुझे मिल ही गया पर अचानक अपनी दिशा बदलने का राज मैंने किसी को भी नहीं बताया,पति को भी नहीं !
अलका गर्ग,गुरुग्राम