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अपंग दिव्यांग और साअंग: एक चिंतन क्रमांक ५

अपंग तथा दिव्यांग में विभेद मूलतः उनके पास उपलब्ध शारीरिक रचना रूप रंग तथा मानसिक स्थिति पर आधारित हैं. जो जीव अपने‌ पास उपलब्ध शारीरिक रचना,रूप रंग आकार का पूर्णता: उपयोग सुनिश्चित कर सामान्य ‌जीवन जीने का प्रयत्न करता है वहीं अपने शारीरिक कमीयों को दिव्यता प्रदान करता है.
अपंगता तथा दिव्यांगता की श्रेणी में दृष्टीहीन, दृष्टिबाधित तथा अल्प दृष्टि तीनों शब्द प्रायः हमारे समाने दैनिक जीवन में ‌प्रयोग होते हैं. समाज में व्याप्त ९०% शिक्षित वर्ग तथा १००% अशिक्षित वर्ग इन तीनों शब्दों ‌का आकलन एक ही अर्थ में करते हैं. इन तीनों ही शब्दों का प्रयोग मूलता: अन्धत्व के पर्याय के रूप में ही किया जाता है. परन्तु ‌प्रश्न यह है की यदि ये तीनों ही अन्धत्व को दर्शाते‌ हैं तो अलग अलग शब्दों की आवश्यकता क्यों? दरअसल हमें इन शब्दों की पूर्ण व्याख्या कर इसके सही अर्थ का ज्ञान अतिआवश्यक. जब तक हम इनके सही अर्थ को नहीं समझेंगे तब तक हम इस दिव्यांगता या अपंगता से पीड़ित जीव को अपना सम्पूर्ण सहयोग नहीं दे पाऐंगे.
दृष्टि हिन सम्बोधन का शाब्दिक अर्थ पूर्ण रूपेण दृष्टि का ना होना है. ऐसे सभी जीव जो या तो जन्म से या जन्म के उपरांत किन्हीं कारणों से अपने नेत्रों से किसी भी आकार रंग रूप को आमतौर पर पूर्ण रूप से देख नहीं पाते. जिन्हें किसी भी आकार रंग रूप को छूकर सूंघकर या सुनकर समझना पड़ता है ऐसे जीव नेत्रहीन या दृष्टि हिन कहलाते हैं. ये जीव अपने नेत्रों में किसी भी प्रकार की रौशनी को महसूस कर पाने में असमर्थ होते हैं. ऐसे जीवों को भी अगर समाज इनके जीवन के प्रारंभ से ही नेत्रों के स्थान पर दूसरी ज्ञानइन्द्रियां जाग्रत करना सीखा दे, तो ये नेत्रहीन जीव अपंग के स्थान पर दिव्यांग बन जाते हैं तथा समाज के सकारात्मक विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
इसके पश्चात वे जीव आते हैं जिन्हें दृष्टिबाधित शब्द से सम्बोधित किया जाता है. जिस प्रकार ‘दृष्टि हिन’ सम्बोधन में हिन शब्द ‘अन उपलब्धता’ का सूचक है उसी प्रकार ‘बाधक’ शब्द किसी ‘अवरोध’ को दर्शाता है. दृष्टि बाधक शब्द पूर्ण अंधता नहीं अपितु दृष्टि में उत्पन्न उन दोषों की व्याख्या करता है जो जीव को किसी आकार रंग रूप की पहचान में बांधा उत्पन्न करता है. इस तरह के दोषों में रात्रि में कुछ ना दिखना, दिन में कुछ ना दिखना, रंगों का स्पष्ट वर्गीकरण ना हो पाना, दूर का ना दिखना, निकट का ना दिखना इत्यादि आता हैं. इनमें से कुछ दोषों को पूर्णतः या अंशत: कुछ अन्य सामानों की मदद से सुधारा जा सकता है या नहीं भी सुधारा जा सकता. इस प्रकार के दोषो से प्रभावित जीव हर क्षण असमंजस की स्थिति में होता है. उसे अपनी आंखों से दिख रही चिजो आकारों और रंग रूप की पहचान के लिए हमेशा एक सहयोगी की आवश्यकता होती है.इस प्रकार के जीव में आत्मविश्वास का बढ़ना समाज के सहयोगात्मक व्यवहार के कारण होता है और समाज के सहयोग से ऐसा जीव दिव्यांगता की ओर कदम बढ़ाता है.
अल्पदृष्टि या दृष्टि हिनता में बहुत बारिक सा फर्क होता है, जहां एक ओर दृष्टि हिन जीव के पास रौशनी की मात्रा शून्य होती है वहीं दूसरी ओर अल्प दृष्टि जीव के पास आकार रंग रूप की अस्पष्ट पहचान की क्षमता होती है. ये जीव‌ अत्याऐ कठिन व असमंजस की स्थिति का सामना करते हैं. चूंकि इनमें देख पाने की क्षमता कुछ मात्रा में होती है तो कभी कभी ये सा अंगों सा व्यवहार करते हैं और अपनी दुर्बलताओं को पिछे छोड़ आगे बढ़ने का प्रयत्न करते हैं तथा कभी ये हतोउत्साहित हो जीवन के अंत की ओर अग्रसर हो जाते हैं. ऐसे जीवों को उनकी अवस्था को समझना समाज के लिए अत्यंत आवश्यक है. क्योंकि समाज की समझ ही इन्हें सकारात्मक या नकरात्मक बना सकती है. अतः दृष्टि हिन , दृष्टि बाधित तथा अल्प दृष्टि इन तीनों सम्बोधनो का प्रयोग प्रबुद्ध समाज को बहुत सोच समझकर करना चाहिए जिससे इन्हें हम अपंग होने से बचा सके‌और दिव्यांग बनाने में सहयोग कर सकें.

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