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संस्मरण – ‘परीक्षा’ — महेश तंवर

 

मेरी सभी परिवार वालों को, रिश्तेदारों को, व अपने विशेष जान पहचान वालों को अपना कहकर बोलने की आदत थी या मेरा भ्रम था, या फिर अपना समझना माता-पिता व गुरू जनों द्वारा मिला संस्कार था।
एक दिन पोस्ट मास्टर कैलाश जी, जिनकी ड्यूटी चौमू में हुआ करती थी। उनका आना -जाना मेरे सामने से ही हुआ करता था। वापिस घर आते वक्त कभी-कभी मेरे यहां रूक जाया करते थे। वार्तालाप करते हुए मैं जब यह कहता कि वह हमारे, तब कैलाश जी कहा करते थे कि मास्टर जी आप सभी के लिए हमारे मत कहा करो। हमारे वही हैं जो विपत्ति में काम आए। यदि आप इस बात की परीक्षा लेनी है तो आप उनसे कुछ रुपए मांग कर देखिए। यदि बिना किसी लेकिन, किंतु, परंतु किए आपको रुपए देते हैं या आपके किसी भी काम आते हैं, तो समझो वह आपके हैं। यदि आना- कानी करते हैं तो समझो वह आपके नहीं है।
कुछ दिन बाद मैं जिन्हें अपना कहता था, उनसे कुछ रुपए उधार मांग कर देखा कि वह मेरी मदद करने के लिए कितने तैयार हैं ।मैं उन सब की परीक्षा लेना शुरू किया। उन सब में तीन-चार प्रतिशत ही काम आए ।बाकी सभी कोई न कोई बहाना बनाने लगे। तब मैं पोस्ट मास्टर कैलाश जी से कहा कि साहब आप सही कहते थे। अपने वो ही होते हैं जो वक्त पर काम आते हैं। इस प्रकार मैं अपनों की परीक्षा ली ।सत्य है अपने वो ही होते हैं जो विपत्ति में काम आते हैं।
महेश तंवर सोहन पुरा
नीमकाथाना (राजस्थान)

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