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लघुकथा— उपहास — भोला सागर

मैंने साल 2008 में एक विद्यालय खोला। वह भी एक डक फार्म था,जिसमें दो कमरे के बराबर एक ही हाॅलनुमा कमरा था। शुरुआत में विद्यार्थियों की संख्या कम थी। कुछ लोग मेरा उत्साह बढ़ा रहे थे। परंतु,कुछ लोग मेरा उपहास भी उड़ा रहे थे। क्योंकि, कुछ लोग मुझसे जलते थे। ताना मारते यह कहकर कि डक फार्म में कहीं विद्यालय चलता है?

विद्यालय धीरे-धीरे अपने मौलिक रूप में आने लगा। शुरुआत में मात्र 14 विद्यार्थी थे। देखते-ही-देखते तीन-चार महीने में विद्यार्थियों की संख्या में इजाफ़ा होने लगा,जो बढ़कर 14 से 80 तक पहुँच गयी। मैं जलने वाले उन लोगों की ऑंखों की किरकिरी बन चुका था।

साल 2009 की शुरुआत में ही विद्यार्थियों की संख्या 150-200 तक पहुँच चुकी थी। जलने वालों की ऑंखों से अब पानी बह रहा था। क्योंकि,उसके मुँह की लाली छीन गयी। विद्यालय अब अपने असली रूप में निखर चुका था।

अब उपहास उड़ाने वाले विलुप्त से हो गये।

भोला सागर
चन्द्रपुरा,बोकारो,झारखंड

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