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विरोध की नहीं,सहयोग की भावना विकसित करें — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

 

आज के युग में जब तकनीक और विज्ञान इतनी प्रगति कर चुके हैं, तब भी मनुष्य के भीतर सहिष्णुता और सहयोग की भावना में निरंतर कमी आती जा रही है। समाज में आए दिन ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं, जहाँ लोग छोटी-छोटी बातों पर विरोध करने लगते हैं। कभी जाति के नाम पर, कभी धर्म के नाम पर, कभी राजनीति के नाम पर और कभी व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण। यह विरोध धीरे-धीरे घृणा, हिंसा और द्वेष का रूप ले लेता है, जिससे समाज का सौहार्द और एकता खतरे में पड़ जाती है।

यह बात समझनी आवश्यक है कि मतभेद स्वाभाविक हैं, लेकिन मतभेद को विरोध का रूप देना अनुचित है। हर व्यक्ति की सोच, परवरिश, अनुभव और दृष्टिकोण अलग होता है, अतः भिन्न मत होना स्वाभाविक है। लेकिन यही विविधता जब आपसी समझ और संवाद के माध्यम से जुड़ती है, तो वह समाज की ताकत बन जाती है।

सहयोग की भावना का मतलब यह नहीं कि हम अपनी असहमति को दबा दें, बल्कि यह कि हम उसे सकारात्मक रूप में रखें। हम सामने वाले की बातों को भी उतनी ही गंभीरता से सुनें जितनी अपनी। आलोचना भी सहयोग का हिस्सा हो सकती है, यदि वह रचनात्मक हो और समाधान के उद्देश्य से की जाए।

सहयोग केवल बड़े मंचों तक सीमित नहीं होता। यह घर से शुरू होता है – माता-पिता का सहयोग, भाई-बहनों का साथ, पड़ोसियों का मेल-जोल। फिर यही भावना स्कूल, कार्यालय, समाज और अंततः देश तक फैलती है। जो परिवार और समाज सहयोग की नींव पर खड़े होते हैं, वहाँ प्यार, विश्वास और उन्नति अपने आप आ जाते हैं।

इतिहास इस बात का गवाह है कि जब-जब समाज ने आपसी सहयोग को महत्व दिया, तब-तब विकास की गति तीव्र हुई। चाहे स्वतंत्रता संग्राम हो या कोई प्राकृतिक आपदा – लोगों ने जब एकजुट होकर कार्य किया, तब असंभव को भी संभव बना दिया। वहीं जब केवल विरोध और टकराव की भावना हावी हुई, तब विनाश और पतन ने दस्तक दी।

अतः आज आवश्यकता है कि हम विरोध करने की प्रवृत्ति को त्यागें और सहयोग की संस्कृति को अपनाएं। हमें सीखना होगा कि एकता में शक्ति है, और शक्ति में ही समाधान है। जब हम मिलकर चलेंगे, तो न केवल व्यक्तिगत जीवन सुखमय बनेगा, बल्कि समाज और राष्ट्र भी समृद्ध और शांतिपूर्ण बन जाएगा। विरोध की नहीं, सहयोग की भावना ही सच्चे लोकतंत्र, मानवता और विकास की नींव है।

प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

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