बड़ी सोच — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

गाँव के एक कोने में, मिट्टी की झोंपड़ी में रहने वाला रामू किसान, हर सुबह सूरज उगने से पहले उठता, बैलों को तैयार करता और खेतों में जुट जाता। उसकी मेहनत पर कोई सवाल नहीं था, पर किस्मत शायद उसकी मेहनत की भाषा नहीं समझती थी। साल-दर-साल सूखा पड़ता, बारिश दगा दे जाती, और फसलें रामू की उम्मीदों को चबाकर उड़ जातीं।
रामू के पास जमीन तो थी, पर साधन नहीं। बेटा चंदू अभी सिर्फ सोलह साल का था, पर नज़रों में चुपचाप कोई सपना पलता था — कुछ अलग करने का, कुछ बड़ा सोचने का।
एक दिन गाँव में एक शहर का सेठ आया। उसका नाम था सेठ मोहनलाल। वह अपने दादा की पुरानी हवेली को देखने आया था जो अब वीरान बगीचे के बीच खड़ी थी। हवेली के चारों तरफ़ आमों का एक बड़ा बाग़ फैला था। सेठ ने गाँव वालों से कहा —
“जो कोई इस पूरे बाग़ के सारे पके आम तोड़कर मुझे दे देगा, और वो भी आज सूरज डूबने से पहले, उसे मैं इनाम में सोने की एक ईंट दूँगा।”
गाँव में खलबली मच गई। एक ईंट सोने की! पर बाग़ बहुत बड़ा था, और सूरज की चाल भी धीमी नहीं थी। लोग दोपहर तक आम तोड़ते-तोड़ते थकने लगे। कुछ ने हाथ खड़े कर दिए।
रामू ने भी जाने की सोची, पर उसके बेटे चंदू ने हाथ पकड़कर कहा,
“बाबा, मेहनत से बड़ी सोच ज्यादा दूर ले जाती है। मुझे एक मौका दो।”
रामू थोड़े असमंजस में था, पर बेटे की आँखों में भरोसा देख उसे हाँ कहना ही पड़ा।
चंदू भागकर स्कूल पहुँचा, छुट्टी करवा दी, और गाँव के सारे बच्चों को इकट्ठा किया। बोला—
“देखो दोस्तों, अगर हम सब मिलकर काम करें, तो ये पूरा बाग़ दोपहर से पहले ही साफ हो सकता है। शर्त बस इतनी है — हर बच्चा तीन आम मेरे लिए तोड़ेगा, फिर दो अपने लिए रख सकता है। बाक़ी सब खेल समझकर काम करो।”
बच्चों की आँखों में चमक आ गई। किसी ने इसे बोझ नहीं समझा, सबने इसे उत्सव बना दिया। कोई पेड़ पर चढ़ गया, कोई नीचे पकड़ने लगा। आम इकट्ठा होने लगे, टोकरियाँ भरती गईं। चंदू हर टोकरी में नाम लिखवाता गया, ताकि सबको उनके हिस्से के आम मिल सकें।
जब सूरज डूबने को आया, सेठ मोहनलाल के सामने आमों का ढेर लग चुका था — चमचमाते, ताजे, और बिना नुकसान के। सेठ हक्का-बक्का रह गया।
“तुमने ये कैसे कर लिया, लड़के?” उसने पूछा।
चंदू मुस्कराया और बोला —
“मैंने मेहनत की कीमत नहीं बताई, हिस्सा बताया। जब लोग खुद को इस काम का हिस्सा मानें, तो काम अपने आप हो जाता है।”
सेठ इतना प्रभावित हुआ कि उसने एक नहीं, दो सोने की ईंटें चंदू को दीं। और गाँव के बच्चों को भी मिठाइयाँ बँटवाईं।
रामू की आँखें भर आईं। उस रात उसने बेटे से पूछा,
“बेटा, इतनी समझ तुझे कहाँ से आई?”
चंदू बोला —
“बड़ी सोच यही होती है बाबा — जहाँ हम अकेले नहीं, सबको साथ लेकर चलते हैं।”
बड़ी सोच वो नहीं जो सिर्फ ऊँचा सोचती है, बड़ी सोच वो है जो सबको साथ लेकर चलती है, हर हाथ को ताक़त में बदल देती है।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या