वापसी’ की समीक्षा — पल्लवी राजू चौहान

ऊषा प्रियंवदा का जन्म २४ दिसंबर १९३१ को हुआ था। इनकी शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय में हुआ था। इन्होंने अंग्रेजी में स्नातकोत्तर की डिग्री हासिल की थी। इन्होंने एमिन अंग्रेजी में पीएचडी की। आधुनिक युग में परिवार के विघटन, ऊब और अकेलेपन की घटनाओं को प्रकाशित करने का प्रयास किया है।
इस ‘वापसी’ कहानी में गजाधर बाबू के जीवन के अकेलेपन को प्रकाश में लाने का प्रयास किया गया है। एक पति और एक पिता जो अपना ३५ वर्ष रेलवेक्वार्टर में गुजार देता है। सेवा निवृत्ति के पश्चात वह अपने परिवार के साथ सुखी जीवन व्यतीत करना चाहता है। वह अपने घर जिस उम्मीद से आता है, उसका एक कण भी खुशी उसे नसीब नहीं होता और वह वापस मिल में नौकरी करने के बहाने से लौट जाता है।
ऊषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ एक मध्य वर्गीय परिवार की कहानी है। इस कहानी के मुख्य पात्र गजाधर जी है। जिन्होंने अपना ३५ वर्षीय संपूर्ण जीवन अपने परिवार के लालन पालन में गुजार दिया। मनोविनोदी प्रवृति के गजाधर जब तक नौकरी करते रहे, अपने बच्चों के साथ हंसते खेलते थे, पत्नी के साथ मनोविनोदी व्यवहार रखते थे। पत्नी और बच्चों के प्रति हमेशा समर्पित भाव रखते थे। नौकरी से सेवानिवृति पाने के पश्चात वे अपने परिवार के साथ रहना चाहते थे, क्योंकि उनका ज्यादातर जीवन छोटे स्टेशनों के रेलवेक्वार्टर में ही गुजरा था। सेवानिवृत्ति के पश्चात अब अकेलापन उन्हें बहुत खलने लगा था। उन्होंने अपने सेवक गनेशी को उसकी बेटी की शादी में कुछ आर्थिक मदद देकर शहर अपनी पत्नी और बच्चों के पास चले आए।
अपने परिवार के साथ रहने का इतना उत्साह मन में था कि अब किसी भी हालत में परिवार से अलग नहीं होना चाहते थे। अब वे जीवन का हर एक क्षण अपनी पत्नी और बच्चों के साथ गुजारना चाहते थे, परंतु ईश्वर को शायद कुछ और ही मंजूर था।
वे अपने घर जैसे ही पहुंचे तब उन्होंने टोपी उतारकर चारपाई पर रखी और चप्पल नीचे चारपाई के अंदर खिसका दिया। उस वक्त घर का माहौल बहुत खुशनुमा था। घर से कहकहे की आवाज आ रही थी। उस घर में गजाधर बाबू के लिए चारपाई इस प्रकार लगाई थी, जैसे किसी मेहमान के लिए अस्थायी रूप से प्रबंध किया जाता है। उन्होंने कुर्सियों को दिवाल से सटा कर एक पतली सी चारपाई बिछा दी थी।
गजाधर जी जब शहर में अपने परिवार के साथ रहने लगते हैं। तब वे उनमें अपने प्रति परिवार का जो स्नेह, प्रेम और आदर के भाव की कामना करके हंसी खुशी आए थे। वह प्यार और सम्मान उनके व्यवहार में उन्हें नहीं दिखाई दिया। उनके मन में रिश्ते की औपचारिकता के अलावा और कोई भाव नजर नहीं आया। जिन बच्चों के लिए कभी उनके मन में प्यार और स्नेह था, वही बच्चे पिता के द्वारा उनके जीवन में दखल अंदाजी से हैरान परेशान रहने लगे।
उनकी पत्नी हर वक्त बेटी बहू के व्यवहार से इतना परेशान हो जाती थी कि हर बात गजाधर जी से दिल खोलकर कह देती। उनकी पत्नी ने जब यह कहा कि बहू बेटी उनके किसी काम में हाथ नहीं बटाती है, तब गजाधर ने बसंती को समझाते हुए कहा “ तुम सुबह पढ़ लिया करो। तुम्हारी मां बूढ़ी हुई। उनके शरीर में अब शक्ति वह नहीं बची है। तुम हो, तुम्हारी भाभी है, दोनों को मिलकर काम में हाथ बटाना चाहिए।” एक पिता होने के नाते उन्होंने समझा तो दिया, परंतु बसंती का उनके इस बात पर रिएक्शन नहीं मिलता है। एक बुजुर्ग होने के नाते वे उनके हरकतों पर रोक टोक करने लगे। बसंती के जाने के बाद उनकी पत्नी ने कहा, “ पढ़ने का तो बहाना है, कभी जी ही नहीं लगता। लगे कैसे? शीला से ही फुर्सत नहीं, बड़े बड़े लड़के हैं उनके घर में। हर वक्त वहां घुसा रहना, मुझे नहीं सुहाता। मना करूं, तो सुनती नहीं।,”
उनकी पत्नी को जब भी उनसे शिकायत करनी होती है तब चटाई लेकर बैठक में डाल पड़ जाती। घर गृहस्थी की बाते छेड़ देती, वैसे भी वे घर का रवैया देख ही रहे थे। उन्होंने बड़े ही हल्के से कहा,” अब हाथ में पैसा कुछ कम रहेगा, कुछ खर्च कम होना चाहिए।” घर के बुजुर्ग होने के नाते वे घर गृहस्थी के मामले में दखल देने लगे। यह चीजें उस घर में रहनेवाले सदस्यों को खटकने लगा था।
इस पर उनकी पत्नी ने कहा, “सभी खर्च तो वाजिब वाजिब है, किसका पेट कांटू?” यही जोड़ गांठ करते करते बूढ़ी हो गई। न मन का पहना, न ओढ़ा।”
गजोधर जी को उनकी बातें दिल में चुभ गई। वे अपनी हैसियत जानते थे। बच्चे तो बच्चें, वे अपनी पत्नी को भी आहत और विस्मित दृष्टि से देखने लगे। उनकी पत्नी तंगी का अनुभव उनसे कर रही थी। यह स्वाभाविक था, लेकिन उनमें सहानुभूति का पूर्ण अभाव था। उनको पत्नी का व्यवहार भी थोड़ा बहुत खटका। उन्हे इस बात का दुख था कि उनसे राय मशवरा की जाती तो ठीक था, किंतु उनसे तो सिर्फ शिकायतें ही की जा रही थी। ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ कि घर की सारी परेशानियों के जिम्मेदार वही थे। गजाधर जी ने अपनी पत्नी को जवाब देते हुए कहा, “तुम्हें किस बात की कमी है अमर की मां, घर में बहू है। लड़के बच्चे हैं, सिर्फ रुपए से ही आदमी अमीर नहीं होता।” उन्होंने अपने आंतरिक अनुभव को पत्नी के सामने रख दिया।
इसपर उनकी पत्नी का जवाब आता है, ” हां, बड़ा सुख है न बहू से। आज रसोई करने गई है, देखो क्या होता है! ” गजाधर जी की पत्नी के बात व्यवहार में असंतुष्ट-सा भाव दिखाई दे रहा था। अपनी पत्नी के व्यवहार को देखकर गजाधर जी सोच में डूब गए। यही थी क्या पत्नी। जिसके हाथों में कोमल स्पर्श, जिसकी मुस्कान की यादों में उन्होंने संपूर्ण जीवन काट दिया? उनकी लावण्यमयी युवती जीवन की राह में कहीं खो गई। आज जो स्त्री है वह उनके मन और प्राणों के लिए नितांत अपरिचित है।
यहां पर लेखिका ने मनोविनोदी भाव वाले गजाधर जी के अंतर्मन के भाव को प्रकट करने का प्रयास किया है। एक पति, एक पिता को घर की जिम्मेदारियों को संभालने के लिए ३५ साल रेलवे क्वार्टर जीवन काटता है। उनके मन के भाव को समझनेवाला उस घर में कोई नहीं है। गजाधर केवल धनोपार्जन के मशीन के समान है, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
थोड़ी ही देर बाद कुछ गिरने की आवाज आती है, उनकी बहू ने चौका खुला छोड़ दी थी, जिस वजह से बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी थी। वह तपाक से बोल पड़ी,” देखा बहू को, चौका खुला छोड़ आई। बिल्ली ने दाल की पतीली गिरा दी। सभी तो खाने को है, अब क्या खिलाऊंगी ?” वह सांस लेने को रुकी और बोली, “ एक तरकारी और चार परांठे बनाने में एक डिब्बा घी उड़ेल कर रख दिया। जरा सा दर्द नहीं है। कमाने वाला हाड़ तोड़े और यहां चीजें लुटें। मुझे मालूम था, यह सब काम किसी के बस का नहीं है। ”
गजाधर जी समझ गए कि उनकी पत्नी कुछ और बोलेगी। वे उसके मुंह की तरफ पीठ करके सो गए। उनकी पत्नी घर परिवार की जिम्मेदारियों में इतनी उलझी हुई है कि वह गजाधर के प्रति होनेवाली उपेक्षित भाव को महसूस ही नहीं कर पा रही है। अमर और उसकी पत्नी को लेकर उसके पास इतनी शिकायतें हैं कि वह परिवार के खीच खीच में ही उलझ कर रह गई है।
पिता के कहने पर बसंती खाना तो बना देती है, पर वह ऐसा खाना बनाती है, जो किसी से खाया न जा सके। गजाधर जी खाना खाकर उठ खड़े हुए, पर वह खाना नरेंद्र से खाया नहीं जा सका। नरेंद्र के मन में खीज भर गई उसने कहा, “ मैं ऐसा खाना नहीं खा सकता।” बसंती तुनक कर बोली, “ तो न खाओ कौन तुम्हारी खुशामद करता है।” वह भड़क कर बसंती से पूछता है, “ तुमको खाना बनाने कहा किसने था?” तब बसंती ने जवाब दिया, “बाबूजी ने।” यहां पर बसंती को उठाकर उनकी पत्नी ने नरेंद्र को मनाया और दुबारा खाना बनाकर खिलाया। बाद में गजाधर ने कहा, “इतनी बड़ी लड़की हो गई है, उसे खाना बनाने का शउर नहीं है।” इस पर उनकी पत्नी ने जवाब दिया,” अरे आता तो सब है, करना नहीं चाहती है।”
बिटिया जो उनकी जिम्मेदारी है, उनको जब गजाधर जी शीला के घर जाते वक्त उसको टोकते हैं और डांटकर जाने से मना करते हैं, तब उस दिन के व्यवहार के बाद बसंती का रवैया अपने पिता के प्रति बदल जाता है। वह उन्हें बिना कुछ बोले पीछे के रास्ते से निकल जाती।
वह अपने पिता से बात करना ही छोड़ दी थी। जब गजाधर अपनी पत्नी से बसंती के बारे में पूछते हैं, तो वह कहती है, “ रूठी हुई है।” यह सुनकर गजाधर को बड़ा ही रोष हुआ। उन्होंने कहा, ”लड़की के इतने मिजाज, जाने को रोक दिया, तो पिता से बात नहीं करेगी।”
वहीं दूसरी ओर अमर भी पिता के आने के बाद से परेशान-सा रहने लगा था। इस पर उनकी पत्नी कहती हैं, “ अमर अलग रहने की सोच रहा है।” इस बात से गजाधर आश्चर्य चकित हो गए। उनकी पत्नी ने कहा कि अमर और उसकी पत्नी की शिकायतें बहुत है, उनका कहना है कि गजाधर हमेशा बैठक में ही पड़े रहते हैं। कोई आने जानेवाला हो, तो कहीं बिठाने की जगह नहीं है।
गजाधर अमर को अब भी छोटा समझते थे, अमर को मौके-बेमौके टोक देते थे। बहू को काम करना पड़ता था। सास जब तब फूहड़पन ताने में देती रहती थी। गजाधर के आने के बाद अमर की आजादी खतम हो गई थी। अमर के दोस्तों का आना जाना बंद हो चुका था। सबकी आजादी समाप्त हो चुकी थी। गजाधर उस घर के केंद्र बन ही नहीं पा रहे थे। पत्नी ने सारी बाते गजाधर जी को बता दी थी। घर के मालिक होने के बावजूद उनका वहां रहना उन्हें अजनबी सा प्रतीत हो रहा था, उन्होंने पत्नी से कहा “अमर को कह दो, जल्दबाजी करने की जरूरत नहीं है।”
अमर का यह व्यवहार गजाधर को अमान्य था। वे समझ चुके थे कि घर के किसी भी मामले में उनका हस्तक्षेप उनके घर वालों को मंजूर नहीं था।
बच्चों के बीच में बोलना उन्होंने छोड़ दिया। पत्नी खीज के मारे गजाधर से शिकायत तो कर देती, परंतु वह भी नहीं चाहती थी कि वे किसी भी मामले में बोलें। गजाधर कई दिनों तक कुछ नहीं बोले। उनकी बेटी बसंती रात को देर होने के बाद भी नहीं लौटी, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। वे चुपचाप किनारे एक जगह पर पड़े रहते।
अगले दिन जब बाहर से घूम कर आए, तो उन्होंने देखा कि बैठक में चारपाई नहीं है। वह इससे पहल कुछ कहते सामने रसोई घर में पत्नी को देखकर उनकी तरफ गए, उन्होंने कोठरी की तरफ झांका तो देखा कि रजाइयो, आचार और कनस्तरों के बीच चारपाई पड़ी है। उन्होंने वही अलगनी पर कपड़े टांग दिए। बिना कुछ खाए पीए चारपाई पर लेटे रहे। कई दिनों तक वे चुप रहे, उन्होंने कुछ नहीं बोला। वे घूमते फिरते वापस अपनी चारपाई पर लेट जाते, पर किसी के काम में हस्तक्षेप करना उन्हें उचित नहीं लगा।
उन्होंने अपने परिवार से जितनी उम्मीद की थी, उसकी एक छोटा सी भी खुशी उनके हाथ न लगी। उन्हे पुनः अपना क्वार्टर याद आया, वही व्यस्त जीवन, चितपरिचित लोग, रेल की पहियों की खट खट। अब वही कर्मयुक्त व्यस्त जीवन उनके लिए सही महसूस होने लगा था, इंजिनों की चिंघाड़ ही उनकी जीवन बन चुकी थी। वह सुनहरा वक्त उनको खोई हुई निधि के समान लग रहा था। उन्हे ऐसा प्रतीत हुआ कि उन्होंने कुछ खो दिया है।
चारपाई पर लेटे लेटे वे सब कलहों को सुनते रहते पर उन्होंने किसीप्रकार का भी हस्तक्षेप नहीं किया। उन्होंने सबसे ज्यादा अकेलापन तब महसूस नहीं करते। जब उनकी पत्नी ने भी उनके परिवर्तन को लक्ष्य नहीं किया, तो उनका मन खिन्नता से भर गया। अब बात यह है कि उनकी पत्नी या तो उनके परिवर्तन को महसूस करके भी अनदेखा कर रही थी या वह इस परिवर्तन से अनजान थी, जो गजाधर के मन के बोझ को समझ नहीं पा रही थी या समझ कर भी समझना नहीं चाहती थी। वास्तव में, एक पत्नी अगर अपने पति के मन के बोझ को नहीं समझ सके ऐसा संभव तो नहीं है, बल्कि उसे तो अपने घर के किसी भी मामले पर न बोलने से शांति ही मिल रही थी। यह बात उसने अपने मन के भाव प्रकट करने के लिए कह ही दिया। उसने कहा “ ठीक ही है, आप बीच में न पड़ा कीजिए, बच्चे बड़े हो गए हैं, हमारा जो कर्तव्य था कर रहे हैं। पढ़ा रहे हैं, शादी कर देंगे।* गजाधर ने अपनी पत्नी को आहत भरी दृष्टि से देखा। वह समझ गए कि वे पत्नी और बच्चों के लिए तो धनोपार्जन के मशीन के अतिरिक्त कुछ हैं। वह घर परिवार में इतनी रमी हुई है कि उसे वह घर परिवार ही उसकी संपूर्ण जिंदगी नजर आती थी। वह घर परिवार में ही उलझ कर रह गई थी।
इतना कुछ होने के बाद भी उन्होंने घर के मामले में हस्तक्षेप कर दिया।
उनकी पत्नी अपने स्वभाव के अनुसार उनसे शिकायत कर बैठी। वह नौकर की शिकायत करती हुई कहती है “ कितना कामचोर है, बाजार की चीजों में भी पैसे बनाता है। खाने बैठता है तो खाता ही चला जाता है। “ गजाधर यह जानते थे कि उस घर का खर्च हैसियत से अधिक है। पत्नी के शिकायत के पश्चात वे नौकर को निकाल देते हैं। उनकी सोच थी कि घर में तीन मर्द है। चाहें तो सारा काम आसानी से निपट जाएगा, पर उनकी सोच धरी की धरी रह जाती है।
अमर दफ्तर से लौटता है, तो वह नौकर को पुकारता है। उस वक्त अमर की बहू कहती है, “बाबूजी ने नौकर छुड़ा दिया है। तब अमर पूछता है, “ क्यों?” फिर अमर की बहू कहती है, “कहते हैं खर्च बहुत है।” जब उसे यह पता चलता है कि पिताजी ने नौकर को निकाल दिया है, तो वह भड़क जाता है और कहता है, “ अगर बाबूजी यह समझें कि मैं साइकिल पर आटा पिसाने जाऊंगा, तो यह मुझसे नहीं होगा।“ अमर और बहू की बातें गजाधर जी के दिल को लग गई। वहीं दूसरी ओर बेटी ने भी जवाब दे दिया, “ में कॉलेज भी जाऊं और घर लौटकर झाड़ू भी मारूं, ये मुझसे नहीं होगा।”
अब बच्चों के दिल में पिता के लिए कोई सम्मान नहीं था। घर के मालिक के लिए चारपाई लगाने के लिए घर छोटा पड़ रहा था। पत्नी घर परिवार में इतनी उलझी हुई थी कि अपना दुखड़ा रोने के अलावा उसे कुछ नजर नहीं आता था। अब अपने ही घर में गजाधर की हालत मेहमान से भी बत्तर थी। मेहमान को तो एक बार चाय पानी पूछ लेते हैं, लेकिन अपने ही घर में गजाधर अपमान की घूंट पीकर रह गए। जिस घर परिवार के लिए अपना ३५ साल जीवन नितांत अकेलेपन से जूझते रहे, आज वही घरवाले उनके लिए पराए हो गए। सभी को आजादी पसंद है। एक पिता का पूरा जीवन बच्चों के पालन पोषण हेतु धनोपार्जन में निकल गया, ताकि उनके परिवार का कोई भी सदस्य निर्धन- सा जीवन न जीए। उसी पिता के रहने के लिए बैठक में एक चारपाई बिछाने के लिए जगह नहीं है। पत्नी बच्चों की जिम्मेदारियों के बोझ तले इतनी दब चुकी है कि उसे पति के मनोभावों और उनकी आंतरिक वेदना का भान ही नहीं है। गजाधर मिल में नौकरी करने का निर्णय लेते हैं, परंतु पत्नी उनके साथ जाने के लिए तैयार नहीं है। गजाधर जिस उम्मीद के साथ अपने घर परिवार वालों के साथ रहने आए थे, उस उम्मीद की एक किरण भी उनको उस घर में नज़र नहीं आई। वे चीनी मिल में नौकरी के लिए वापस लौट गए। अतः वे समझ गए कि अब इस परिवार मे उनकी नहीं पैसों का महत्त्व है। पत्नी सबकुछ जानकर भी अनजान बनी रही। बच्चों की आजदी पुनः वापस लौट आई। जैसा कि वे चाहते थे।
ऊषा प्रियंवदा ने एक पति और एक पिता के मनोभावों को बड़ी ही बारीकी से अंकित करने का प्रयास किया है। जब तक गजाधर धनोपार्जन में व्यस्त होता है, उनकी इज्जत बनी रहती है। एक बार वह बैठ गया, तब परिवार के हर एक सदस्यों की आंख की किरकिरी बन जाता है। अंततः गजाधर को न चाहते हुए भी पुनः घर परिवार से दूर होना पड़ता है। वे पुनः वापस लौट जाते हैं।
लेखिका: पल्लवी राजू चौहान
कांदिवली, मुंबई