लघुकथा——रफा-दफा — भोला सागर

पुलिस ने एक बुजुर्ग आदमी को किसी केस में उठा लिया था। वह दुहाई देता रहा कि “मैं निर्दोष हूँ साहब!” पर,पुलिस ने उसकी एक न सुनी। पुलिस द्वारा उस बुजुर्ग को जबरदस्ती गाड़ी में डाल दिया गया और थाने ले आई। पहले उसे दो-चार डंडे जमकर पड़े। बेचारा चिल्ला उठा।
“अबे बूढ़े! चिल्लाता है। बोल,पाँच हजार रुपये जमा करेगा? केस यहीं रफा-दफा हो जायेगा। वरणा,जीवन भर खिचड़ी खाते रहोगे।” पुलिस ने कहा।
बेचारा बुजुर्ग गिड़गिड़ाते हुए बोला–”साहब! पाँच हजार रुपये कहाँ पाऊँगा?”
“नहीं पायेगा तो जा पापड़ बेलते रहो।” पुलिस ने कहा।
उस बुजुर्ग को कोर्ट भेज दिया गया। बेचारा विनती करता रहा। पर,उसकी विनती करने का कोई फायदा नहीं हुआ। उसे जेल में ठूँस दिया गया। तारीख-दर-तारीख चलती रही। इस तरह,उसके दस साल जेल में ही बीत गये। इस दौरान उसके दस हजार रुपये भी खर्च हो गये। चेहरे पर झुर्रियाँ आ गई थीं। चाल भी लड़खड़ाने लगी थी। अंतिम बहस भी पूरी हो चुकी थी।
जज साहब ने फैसला सुनाते हुए कहा—”बाबा! आज से आप बरी हो गये। अब आप घर जा सकते हैं।” बुजुर्ग की ऑंखें भर आईं।
सिसकते हुए बुजुर्ग ने कहा—”आप खूब तरक्की करें। तरक्की कर पुलिस बनें।”
वकील साहब ने कहा—”बाबा! जज तो पुलिस से भी बड़ा होता है।”
“मैं जानता हूँ वकील साहब!” बुजुर्ग ने कहा।
“फिर,आप इनको पुलिस बनने की दुआ दे रहे हैं। आखिर,क्यों?” वकील साहब ने फिर से पूछा।
बुजुर्ग ने समझाते हुए कहा—”जज साहब ने तो दस साल में फैसला सुनाया। मेरे दस हजार रुपये भी खर्च हुए। पुलिस मुझसे पहले ही केस रफा-दफा के लिए पाँच हजार रुपये माँगी थी।”
यह सुनकर जज और वकील दोनों दाँतों तले ऊँगली दबाये रह गये।
भोला सागर
चन्द्रपुरा,बोकारो,झारखंड