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संस्मरण——अनपढ़ का देश प्रेम — मैत्रेयी त्रिपाठी

 

कल रविवार को ,एक मंच पर सुकून वाला रविवार पोस्ट करके, मैंने भी सुकून का अनुभव किया, और सोचा चलो “ मैत्रेयी “कुछ शॉपिंग कर आते हैं ।
अगले कई दिनों तक विभिन्न साहित्यिक मंचों पर काव्यपाठ है, तो कुछ कपड़े लें आयें काम आयेंगे,भाई मेरे जैसे – छोटे रचनाकार, इसी में ख़ुश हो लेते हैं, कारण यह है की पहले कोई हमारा लिखा हुआ सुनता नहीं था ,अब दो चार सुन लेते है।

खैर,आते है मुद्दे की बात पर, मैंनें घर से निकलने से पहले टीवी में न्यूज़ चलाया, देखा की शायद भारत ने पहलगाम का बदला ले लिया हो, पर अभी भी दरिया, पानी और बैठकों की ख़बर से मन उदास हुआ, फिर मैंने ख़ुद को कई हिस्सों से समेट कर चौक जाने के लिये तैयार किया ।
घर से निकले ही थे कि बिट्टन बो भौजी सामने आती दिखी, फ़ेयर एंड लवली की ख़ुशबू से पूरी गली गमक उठी हो जैसे, संग में बालों में अभी लगी मेहंदी की ख़ुशबू अपने नये पन का एहसास करा रही थी ।
का देखत हऊ बिट्टी —से मेरी तन्द्रा भंग हुयी,अरे कुछ ना भौजी हाल-चाल कहा,
अरे का कहे सुने के बा, देखा मुँहझौसा आतंकवादीन के, पापी सबे मार देहले बालन लोगन के, मिली जइते सबे त लोढ़ा से कूँची देती ।
मन में तो मेरे भी यही चल रहा है, और बनारसी गालियाँ भी छाँट-छाँट के निकल रही है, पर मैं तो पढ़ी लिखी हूँ, मुझे पता है ऑटोमैटिक हथियारों से लैस आतंकवादियों से लड़ना क्या होता है, और गालियाँ कहाँ शोभा देती हैं एक लेखक को, पर पूर्वांचल की हूँ तो आप समझ सकते हैं ।
ए बिट्टी फ़ेसबुक पर देखे रही, बड़ा निमन किशन जी के गीत गवेले रहलू, मन ख़ुश हो गयिल , त एक ठे चिट्ठी लिख दे तू मोदी जी के ।
की मोदी जी पानी बंद मत करिये,सारा पानी छोड़ दीजिये बह जाये पाकिस्तान ,आ फिरो घुस के मारिये ।
मेरे मन में शरारत सूझी, मैंने कहा -उ त ठीक बा, पर बतावा जब लड़ाई होला त बड़ा पैसा खर्चा होला , उ कहाँ से आयी ,आ बहुत सैनिक लड़े वाला चाही ।

भौजी गुस्से में बोली, अरे बहिनी का कहलू एतना लोग बाटे देश में,पैसा त हमरे नियन औरत कुल आपन रसोई के डिब्बा झाड़ी दिहे त पैसे पैसा होई जाई, अरे तनी कम कपड़ा खरीदे,कम चटर-पटर पिज़्ज़ा खाये ।

आ लड़े के बहिनी मत पूछा, ससुराल के हमनी के टेरेनिंग (ट्रेनिंग) कब कामे आयी,
अबही दूसरे के खेत के मेड़ काट-काट के आपन दुई बिस्सा खेत बढाई लेत हौए आदमी, पाकिस्तान त कुल बनारसे वाला लेई के उनही से पैसा लेके उनही के बेच दी।

अब तो मेरी हँसी रुक नहीं रही थी, पर कितना सच्चा है अनपढ़ का देशप्रेम, कोई लाग लपेट,कोई मानवता की दुहायी नहीं,
राष्ट्र सर्वोपरि ।
ख़ुद को हज़ार लानत भेज के, ख़रीदारी की तैयारी को त्याग, मैं घर आयी और, चार उपले जोड़कर बाटी बनायी
जो पिज़्ज़ा से कहीं ज़्यादा स्वादिष्ट लग रही थी आज , और होंठों पर अचानक यही शब्द आये—-हम रहें या ना रहें भारत ये रहना चाहिये।

मैत्रेयी त्रिपाठी
स्वरचित

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