अनजाने रिश्ते कितने अपने- लघुकथा — प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या

तेज बारिश हो रही थी। रेलवे स्टेशन की बेंच पर बैठी साठ वर्षीय शारदा देवी की साड़ी भीग चुकी थी। हाथ में पुराना बक्सा और आँखों में इंतज़ार—न जाने किसका।
पास ही खड़ा था आरव, एक युवा आईटी इंजीनियर, जो ऑफिस के लिए ट्रेन का इंतजार कर रहा था। नज़रें बार-बार शारदा देवी की ओर खिंच जातीं, पर हिचकिचाहट रोक लेती।
अंततः मन न माना। वह उनके पास जाकर बोला, “माँजी, भीग जाएँगी, आइए उधर छत के नीचे बैठिए।”
शारदा देवी ने थकी आँखों से उसे देखा, मुस्कराईं और बोलीं, “बेटा, बस यूं ही… यहाँ बैठी थी। अब कोई इंतजार नहीं… सब अपने हो कर भी पराए हैं।”
आरव चुप हो गया। फिर बोला, “अगर चाहें तो मेरे साथ चलिए। मेरी माँ की जगह खाली है, पर ममता की नहीं।”
शारदा देवी की आँखें भर आईं। बिना कुछ कहे वह उठीं, और दोनों एक अनकहे रिश्ते की डोर में बंध गए।
कुछ रिश्ते खून से नहीं, करुणा और अपनापन से बनते हैं। और वो अनजाने होकर भी सबसे अपने लगते हैं।
प्रवीणा सिंह राणा प्रदन्या