लघुकथा—-“साहूकार” — नरेंद्र त्रिवेदी

जीतू एक अनुभवी सब्जियाँ बेचने वाला था। अच्छा धंधा चल रहा था। परिवार में, पत्नी एक पांच -वर्षीय बेटी थी। जब तक काम चल रहा था तब तक इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। लंबी बीमारी की लपेट में जीतू आ गया और बुरी आर्थिक परिस्थिति से टूट गया गया। जीतू की कमर आर्थिक रूप से टूट गई थी।
भुराभाई एक व्यवसायिक साहूकार थे। एक अच्छा आदमी थे। ब्याज बैंक से कम लेते थे मगर पैसे वापस लेने में बहुत सख्त थे। उसका एक नियम था कि अगर कोई वादे पे पैसा वापस नही लौटाते तो वो उन्हें घर जाकर पैसे की वसूली करते थे। कोई वादे से मुक्कर जाए वो भूराभाई बर्दास्त नही करते थे।
जीतू एक अच्छा आदमी है। बिना किसी प्रतिभूतियों के बीस हजार रुपये भुराभाई से कर्ज के रूप में लिया था। लेकिन बीमारी के मार से वायदा चूक गया था। भुराभाई ने सोचा की जीतू अपना वादा चूक गया है, वादे पे पैसे वापस करने के लिए आया नही है। जीतू बेईमान नहीं है। जीतू के घर को जाना है ओर पैसे की वसूली करनी पड़ेगी।
“जीतू?”
“चाचा, पिताजी बीमार है। आप बैठीए, थक गए होंगे।”
भुराभाई ने देखा तो जीतू टूटीफूटी खाट पे पड़ा था। भुराभाई को देखकर गभरा गया और बोला “मुझे थोड़ा वख्त दीजिये में आपका पैसा सूद के साथ लौटा दूंगा।
“माँ, चाचा के लिए चाय बना दो।”
साहूकार भुराभाई का गुस्सा कम हो गया।
“बेटी तेरा नाम क्या है? क्या तुम पढ़ाई करने जाती हो?”
चाचा मेरा नाम सोनल है। में तो पढ़ाई करना चाहती हूं मगर पिताजी पढ़ा नही पाएंगे। हमारे पास पैसा नही। आपका कर्ज भी तो पिताजीको चुकाना है।चाचा पिताजीकी बीमारी की वजहसे हमारी हालत बिगड़ गई है।
भुराभाई घर में चले गए ओर जीतु के हाथ में पांच हजार रुपये डाल दिए और बेटी के सिर पर हाथ रख दिया …ओर कहा अपनी बेटी को पढ़ाना, पढाईका पूरा खर्च में करूँगा ओर ये रुपये वापिस करने की चिंता मत करना।
अपनी बेटी की याद में भुराभाई की आंखे भर आईं थी। अगर होती तो इतनी बड़ी होती मगर…… भुराभाई ने आकाश की ओर देखा और चल पड़े।
नरेंद्र त्रिवेदी।(भावनगर-गुजरात)