हास्य व्यंग्यात्मक कथा) अतिथि बोझम भए — पल्लवी राजू चौहान

अनु बड़ी उदास-सी पलंग पर बैठी है। घर में मेहमान आए हुए है और वह घर के माहौल को ताड़ने का प्रयास कर रही है। वह मन ही मन सोचती है, ‘हाय….पति को संभालना तो मेरे बाएं हाथ का खेल है….पर इन अतिथियों का क्या करू? इनके समझ में आता नहीं ….: हाय राम….. गाज तो मेरे सिर पर गिरी है न। आखिर कैसे बोलूं कुछ भी हो मुझसे तो काम होनेवाला नहीं। इनके कहने पर बुला तो लिया, पर मैं क्यों भुगतूं….यही भुगतें।’
(कमरे से कराहने की आवाज बाहर हॉल तक आ रही थी…..) आह……ओह…….. उई मां….। श्रीमान गजोधर जी यदि मुसीबत मोल लिए हैं, तो निभाना उन्हें ही है। बिचारे महाशय जी अतिथियों के लिए चाय बना रहे हैं, नाश्ता दे रहे हैं। श्रीमान गजोधर जी किचन में खड़े खड़े दूध उबाल रहे हैं। ( वे मन ही मन सोच रहे हैं, हे ईश्वर घर में कोई आया नहीं कि ये पचास बीमारी लेकर बैठ जाती है। ) श्रीमान गजोधर जी गरम गरम दूध के पतीले को उतारते हुए कहते हैं ‘…अरि ओ अनु…. मेरी जान..अब क्या हो गया, कोई पहाड़ टूट गया है या जमीन फट गई। अब क्यों कराह रही हो?‘ (श्रीमती अनु पेट को जोर से दबाती हुई), कराहती हुई कहती है, ‘क्या कहूं जी… मेरे पेट में जोरों की दर्द और मरोड़ उठ रही है….मुझसे उठा नहीं जा रहा।’ गजोधर जी चिढ़कर बोलते हैं, ‘बैठ नहीं सकती, तो उठ जाओ।‘ अनु उदास भाव से कहती है ‘अजी…आप भी न मेरी हर बात को मजाक में लेते हैं।’ गजोधर जी तपाक से जवाब देते हैं, ‘मेरी जान मेरी शामत आई है, जो बैल से सिंग लड़ाने जाऊँगा!’ श्रीमती अनु चिढ़कर खड़ी हो जाती है और आंखें लाल-पीली कर कहती है, ‘अरे …मुझे आपने बैल कहा ? गजोधर जी के पसीने छूट जाते हैं, अरे ..… नहीं नहीं ….मेरी ये मजाल कि मैं ऐसा कह दूं….नसीब से जो दो वक्त की रोटी मिलती है, वह भी बंद हो जाएगी। अनु सिर पिटती हुई कहती है, ‘हाय राम….मैं क्या करूं।’ गजोधर जी अपनी अनु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहते हैं, ‘अरे…. तुम कुछ मत करो, सिर्फ सोनू को स्कूल छोड़कर आ जाओ।’ खाना बन जाएगा।
श्रीमती अनु मन ही मन सोचती है, ‘खाना मुझसे तो नहीं बनेगा और न में बनाऊंगी।’ कविता किचन में खड़ी खड़ी सारे ड्रामें देख रही थी। वह मन ही मन सोचती है, हाय री….. ये घर की गृहणी हैं। बारहों मास बीमार रहती है या तो यूं कहिए कि इसे घर में अतिथि को देखकर पेट में दर्द चालू हो जाता है, या दस्त चालू हो जाता है। कभी भी इसके शक्ल में हँसी नहीं देखी, अजीब-सा बीमार चेहरा बनाकर घूमती रहती है। जिस घर की गृहणी बारहों मास बीमार रहेगी, उस घर में लक्ष्मी कैसे आएगी, यदि आ भी गई तो उल्टे पैर लौट जाएगी।
श्रीमान गजोधर जी मन ही मन बुदबुदाते हुए कहते हैं, किसीने सही कहा है, जब पति की नजर में पत्नी जरूरत से ज्यादा खूबसूरत हो या पत्नी जरूरत से ज्यादा खतरनाक हो, तभी ही पति देव को किचन का रुख करना पड़ता है।
श्रीमती अनु जिसतरह से तैयार होकर बच्चे को लेकर घर से निकली लगा ही नहीं की वह बीमार है। वह बच्चे को स्कूल में छोड़ने के बाद या तो गार्डन में टाइम पास करती, या अपनी किसी सहेली के घर चली जाती। जब सभी खाना खा लेते तो ही वह घर लौटती। उसने अपनी ये कुछ दिनों से आदत बना ली थी।
वह अपनी सहेली के घर जाकर समय बिताकर तीन चार घंटे बाद घर आती है। कविता खाना बनाकर सब को खाना खिला चुकी थी। वह हाथ डुलाते डुलाते धीरे से घर में प्रवेश करती है। घर में शांति छाई हुई थी। वह सोच नहीं पाती है कि क्या हुआ, तभी कविता बोलती है, ‘तुम आ गई, अरे तुम्हारे पति देव और घर के सभी लोग तुम्हारे इंतजार में खाना नहीं खाए है’, तब वह बौखला जाती है और कहती है, ’क्यों जी आप लोगों ने खाना क्यों नहीं खाया?’ गजोधर जी कहते है ‘मोहतरमा, तुम्हारे बगैर निवाले गले में जाने से इनकार कर रहें थे, तो कैसे खा लेता।’ वह उदास-सी किचन की तरफ जाती है, तो देखती है कि किचन में थोड़ा ही खाना है। वह समझ गई कि सबने खाना खा लिया है। वह कविता से पूछती है दीदी आपने खाना खाया, तब कविता जवाब देती है, ‘तुमने खाने के लिए पूछा ही नहीं।’ यह सुनते ही वह थोड़ी देर के लिएं झेंप गई।
कविता को उसकी बातों से पता चल चुका था कि उसके घर में कोई अतिथि आता है, तो सारा किचन का बोझ अतिथि पर डाल कर घर से रफूचक्कर हो जाती है। उसके घर में कोई रिश्तेदार भी आता है, तो वह खाना रिश्तेदारों से ही बनवाती है। ऐसी प्रकृति ऐसी सोच रखनेवाली गृहणी के लिए अतिथि बोझ है।
उसकी इस हरकत से गजोधर जी भलीभांति वाकिफ थे, लेकिन पति देव प्रिये के प्यार में इतना पागल हैं कि उसकी हर गलती को नजर अंदाज कर देते हैं।
‘अतिथि देवो भव’ का स्लोगन ‘अतिथि बोझम भए’के रूप में परिवर्तित हो चुका है। यह हमारे आधुनिक युग की लक्ष्मी रूपी गृहणी का स्लोगन है।
आवो न अतिथि म्हारो देस,
घर म्हारो लागे है परदेस।
लेखिका : पल्लवी राजू चौहान
कांदिवली, मुंबई