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संस्मरण : बचपन की शरारतें – लेखक: राजेश कुमार ‘राज’

संस्मरण : बचपन की शरारतें – लेखक: राजेश कुमार ‘राज’

बात तब की है जब मैं ९ या १० वर्ष का रहा हूँगा. थोडा शरारती था. माँ का लाड़ला भी था. मैं अपनी माँ के साथ कुछ अधिक ही जुड़ाव महसूस करता था और उनके ही पल्लू से चिपका रहता था। घटना सर्दियों की है. सर्दियों में शाम जल्दी ढल जाती है और अँधेरा छा जाता है. उस समय चूल्हे पर खाना बनाया जाता था. मेरे पिता जी को सर्दियों में मक्का की रोटियां खाना बहुत पसंद था. अतः उस दिन देर शाम को माँ चूल्हे पर मक्का की रोटियां बना रही थी. अपनी आदत अनुसार मैं भी चूल्हे के सामने बैठ कर आँच ताप रहा था. माँ बड़ी तन्मयता से मक्का की रोटियाँ पहले तवे पर सेकतीं और बाद में उन्हें चूल्हे की आग में भी पकातीं ताकि रोटियाँ अच्छी तरह से पक जाएँ और कुरकुरी भी हो जाएँ. अपनी शैतानी प्रवृत्ति के वशीभूत मैं आसपास पड़े कागज आदि चूल्हे डाल-डाल कर जला रहा था. जब उन कागजों के जलने से आग की लपटें उठतीं तो मुझे अजीब सा रोमांच अनुभव हो रहा था. मैंने बेध्यानी में एक और कागज उठाया और उसे चूल्हे में झोंक दिया. अचानक से माँ चिल्लाई, “पप्पू यह तूने क्या कर दिया? तूने तो मेरा १० रुपये का नोट ही आग में जला दिया.” उस समय एक मजदूर की पूरे दिन की दिहाड़ी ही १० रुपये होती थी. अब मुझे भी ग्लानी होने लगी कि मैंने अपने घर के एक दिन के राशन का पैसा स्वाह कर दिया. माँ ने मुझे केवल डांट कर छोड़ दिया लेकिन मैं अपने पिता जी के गुस्से की अनुभूति मात्र से काँप रहा था कि जब माँ पिताजी को बताएगी तो बहुत मार पड़ेगी. खैर माँ ने पिता जी को कुछ नहीं बताया और मेरी जान बच गयी.

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