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त्यौहारों पर संस्कृति को दरकिनार कर आधुनिकता के पीछे भागना कहाँ तक उचित है ?? — अलका गर्ग

 

क्या हमारे त्यौहार धर्म के स्थान पर दिखावे का रूप ले रहे हैं?? बहुत ही ज्वलंत और विचारणीय प्रश्न है ये…!और अफ़सोस..यह सच भी प्रतीत होता है ।
आज की भागमभाग वाली ज़िंदगी में अपने त्यौहारों , नैतिक मूल्यों और अपनी संस्कृति के अलावा और किस किस चीज़ को हम दर किनार कर रहे हैं ??
किसी को भी तो नही !! सब कुछ पहले की ही तरह और पहले से भी ज़्यादा ही शौक़ से किया जा रहा है।न पैसे की कमी का रोना होता है न ही समय की कमी या व्यस्तता का ..।
सुबह उठ कर नहा धोकर ,भक्ति भाव से पूजा की तैयारी ,पकवान ,सजावट ,फिर विधि विधान से पूजा आयोजन,लोगों से मिलना जुलना ,प्रसाद वितरण हम में से कितने लोग करते हैं ??
पर हाँ ,त्यौहार के दिन भी अपनी सुविधा के अनुसार अलसाते हुए उठ कर फिर चाय पी कर फ़ोन से सौ दो सौ लोगों को बधाई का संदेश भेज कर समाचार TV सब देख कर फिर आधा दिन बीतने में बाद बचे हुए समय में त्यौहार मनाने की कोशिश ,हम में से बहुत से लोग ज़रूर करते हैं ।
तो त्यौहारों का रूप तो बदलेगा ही ना ..!
कहाँ गया वो खेती दुकान नौकरी घर की ज़िम्मेदारी और काम के बावजूद दो तीन दिन पहले से ही त्यौहार की थोड़ी थोड़ी तैयारी शुरू कर देने का उत्साह ..!
व्यस्त तो तब लोग आज से अधिक होते थे क्यूँकि आज की तरह हरेक वस्तु सुलभता से उपलब्ध नहीं होती थी और पूजा के तरीक़े आज की तरह काम चलाऊ भी नहीं होते थे पारम्परिक पूजा में हरेक वस्तु का अपना महत्व होता है तो उसका इंतज़ाम करना ही पड़ता था चाहे समय लगे या मेहनत. .
सीमित साधनों में भी असीमित उत्साह होता था ..।
समय की कमी और व्यस्तता का रोना हर देश काल परिस्थिति में अचूक हथियार का काम करता है ।वैसे ये अपने मन को समझाने का भी बहुत सुंदर उपाय है ।
हरेक त्यौहार में शाम को डीजे के कानफोड़ू संगीत पर चमचमाती हुई लाइट में उल्टे सीधे गानों पर नाचने और शोर मचाने के लिए समय की कोई कमी नही होती है ।
पूजाओं के भी इवेंट पैकिज बन गए हैं ।कई महीने पहले से ही होटल रिसोर्ट्स मैरिज हॉल विज्ञापन निकालते हैं रजिस्ट्रेशन के लिए अच्छी ख़ासी रक़म ले कर ..जो कि सभी बहुत ख़ुशी से देते हैं और जो नहीं दे पाते वो ललचाते है कि न जाने हमने वहाँ ना जा कर क्या खो दिया ..।
पवित्र काँवर हो या गरबा , विसर्जन हो या जागरण, तीज छठ या करवा चौथ सभी त्यौहारों का आधुनिकता की चपेट में आने के कारण पवित्र पारम्परिक रूप बदलता जा रहा है ।इसके अलावा पवित्र तीर्थ यात्राओं को भी आधुनिकता का चोला पहना कर पर्यटन का नाम दे कर उनका भी स्वरूप बिगाड़ दिया गया है ।रही सही कसर फ़िल्म सिरियलस मीडिया ने पूरी कर दी जिससे हमारा युवा वर्ग पूरी तरह प्रभावित है और उसको आदर्श मान कर उसकी नक़ल करता है ।
आजकल त्यौहारों पर भी नशे का चलन आम हो रहा है जो कि वास्तव में बेहद शर्मनाक और हमारे संस्कृतिक मूल्यों का नैतिक पतन है।
नई पीढ़ी को जल्दी ही इस पतन की ओर जाते हुए ग़लत रास्ते को छोड़ कर पीछे की तरफ़ लौटना होगा वरना हमारी सनातन संस्कृति की अनमोल विरासत ये त्यौहार इतिहास बन कर रह जाएँगे ।

अलका गर्ग,गुरुग्राम

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