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कहानी: “पंक्ति”(सहारा) — डॉ इंदु भार्गव

 

सुबह के सात बजे थे। ठंड हल्की थी, लेकिन सरकारी अस्पताल के बाहर पहले से लंबी पंक्ति लगी थी। हर चेहरा परेशान, हर आँख में उम्मीद, और हर हाथ में एक फाइल। उन्हीं चेहरों में एक चेहरा था — श्यामा का।

श्यामा एक विधवा थी। उम्र लगभग पचपन, चेहरे पर समय की लकीरें साफ़ दिखती थीं। वह अपने इकलौते बेटे राजू को लेकर अस्पताल आई थी, जो कई दिनों से बीमार था। साँस फूलती जा रही थी उसकी, छाती में बलग़म जमा था, और आँखें हर वक्त बुझी-बुझी रहती थीं।
मैं जानती थी श्यामा काकी के पास इलाज के पैसे नहीं थे, मुझे कोई देता नहीं सो अपनी निजी सम्पति अपनी गुल्लक से रुपये निकाल के काकी को दे दिए काकी चिंता और ठंड से कांप रही थी मैंने अपना कंबल काकी को दे दिया, काकी की आँखों मे कृतज्ञता के भाव साफ़ नजर आ रहे थे मुझे संतोष था आज एक छोटी सही मदद तो मैं कर सकीं! मैं जिद्द कर काकी के साथ हस्पतल आ गईं! सच कहूँ तो तब तक मेरे दिल ने अमीर गरीब का भेद भाव नहीं समझा था!!

राजू की हालत बिगड़ रही थी, लेकिन सरकारी अस्पताल में इलाज तभी मिलता था जब आप “पंक्ति” में समय पर लगते।

श्यामा(काकी) सुबह चार बजे ही उठ गई थी, बेटे को एक कम्बल में लपेटकर कंधे पर उठाया और अस्पताल की ओर चल पड़ी। उनके पास ऑटो तक के पैसे नहीं थे।

(पंक्ति की राजनीति)

अस्पताल में एक नया डॉक्टर आया था, जिसकी “पहले आओ, पहले पाओ” नीति ने सबको सख्त पंक्ति में लगना अनिवार्य कर दिया था। और हर दिन पंक्ति में ‘कोई न कोई’ पीछे रह जाता।

श्यामा भी पंक्ति में लगी। राजू की हालत और बिगड़ रही थी। वह बार-बार खांसता, उसकी छाती में अजीब-सी आवाज़ें आतीं।

पास खड़े लोगों से श्यामा ने बिनती की — “बाबूजी, बच्चा बहुत बीमार है… ज़रा पहले आ जाऊँ?”
लेकिन सबने सिर फेर लिया। “हम भी रात से खड़े हैं,” एक औरत ने झल्लाते हुए कहा।

श्यामा चुप हो गई। वह जानती थी — ग़रीब की विनती पंक्ति में नहीं, भीड़ में खो जाती है।
(समय की चोट)
सुबह से दोपहर हो गई। सूरज सिर पर था। राजू की साँसें तेज़ चलने लगीं। श्यामा ने उसे गोद में उठाया और डॉक्टर के कमरे की तरफ दौड़ी।

गेट के पास ही एक सिक्योरिटी गार्ड ने उसे रोका — “मैडम, बिना नंबर के नहीं जा सकते। पंक्ति में आइए!”

श्यामा रोई, गिड़गिड़ाई, लेकिन उसे वहीं रोक दिया गया। तभी राजू ने माँ की गोद में ही धीरे से आँखें मूंद लीं।

“राजू…? राजू!” श्यामा चीख पड़ी।

भीड़ चुप हो गई।

डॉक्टर बाहर आया, बच्चे की नब्ज देखी और सिर हिला दिया। देर हो गई…

(अंतिम पंक्ति)

अगले दिन उसी अस्पताल के बाहर एक और पंक्ति लगी थी

(मृत प्रमाण पत्र की पंक्ति)
श्यामा, अब उस पंक्ति में सबसे आगे थी
और मृत प्रमाण पत्र हाथ लिए श्यामा भीड़ से आँखों मे सवाल कर रही थी पूछ रहीं थीं डॉ से… सवाल का जबाब सब को पता था इस पंक्ति मे सब खडे हैं ना जाने किस का पहला नंबर हो…
पंक्ति मे खड़ा हर इंसान डॉ शर्मिंदा था लोगों को अब सिस्टम की कमी नजर आ रही थी… श्यामा काकी की उंगली पकड़े मैं आज उन का सहारा बनी थी पल भर को सही उन्हें मुझ से राजू को पाने की शायद एक किरण शेष दिखी थी!!
डॉ इंदु भार्गव जयपुर

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