निरीह खरगोश — लेखक : राजेश कुमार ‘राज’

मेरे गुजरात प्रवास संस्मरण
आज जिस घटना का मैं जिक्र करने जा रहा हूँ मेरी याददाश्त के अनुसार वह वर्ष १९८९-९० की सर्दियों की है. उस समय मेरी पोस्टिंग गुजरात के कच्छ जनपद के भुज शहर में थी. भुज में पोस्टिंग से पहले मैं कच्छ के ही एक समुद्र तटीय शहर मांडवी में तैनात था जहाँ पर मैंने अपना कठिन कार्यकाल (हार्ड पोस्टिंग) पूर्ण किया था. भुज सीमावर्ती कच्छ जिले का मुख्यालय है. जिला मुख्यालय को गुजराती भाषा में जिल्ला मथक कहा जाता है.
घटना देर शाम के समय की थी. सर्दियों का मौसम होने की वजह से अँधेरा जल्दी घिर आया था. हम चार पांच साथी जीप से कच्छ जिले के एक सीमान्त गाँव, जो भुज शहर से लगभग ७० किलोमीटर की दूरी पर स्थित था, से वापस भुज आ रहे थे. जीप को हमारे एक साथी चला रहे थे. हमारे एक वरिष्ठ साथी जीप की ड्राईवर के साथ वाली फ्रंट सीट पर बैठे थे तथा मैं अन्य साथियों, जिनमें एक मुस्लिम साथी भी था, के साथ जीप के पिछले हिस्से में बैठा था. उस मुस्लिम साथी के पास एक छोटी सी कुल्हाड़ी भी थी. उस इलाके में जीप से सफ़र करने का कारण यह था कि एक तो जीप में अधिक लोग बैठ सकते थे दूसरे फोर व्हील ड्राइव सुविधा होने के कारण उस सीमान्त इलाके में जीप ही एक कारगर वाहन साबित हो सकता था. उस इलाके में पीने के पानी की कमी (अछत) होने के कारण जनसँख्या का घनत्व बहुत कम था और एक गाँव से दूसरे गाॅंव के बीच दूरी का अंतर भी ज्यादा था. इसके बावजूद उस सीमान्त इलाके को भुज शहर से जोड़ने वाली सड़क की स्थिति बहुत ही शानदार थी.
हमारी जीप सुनसान सड़क पर अपनी हैडलाइट्स से अँधेरे को चीरती हुई आगे बढ़ रही थी. सभी लोग थके हुए थे और अर्ध्सुप्तावस्था में थे. लेकिन अपनी आदत के अनुसार मैं रास्ते में पड़ने वाली झाड़ियों और बबूल के पेड़ों का अवलोकन कर रहा था. रास्ते में हमें कोई इक्का-दुक्का वाहन ही कभी-कभार दिखाई पड़ जाता था अन्यथा हम नितांत अकेले ही उस सड़क पर यात्रा कर रहे थे. मैं अपनी कल्पना की दुनिया में मस्त था. अचानक ड्राईवर ने ब्रेक लगाये. गाड़ी एक जबरदस्त हिचकोला खाकर रुक गयी. उस हिचकोले ने सभी अर्धनिन्द्रावश लोगों को होश में ला दिया. हम सबने देखा कि एक खरगोश हमारी जीप की हैडलाइट्स के प्रकाश के कारण भ्रमित, चकित और स्तंभित होकर बीच सड़क में ही बैठ गया था. शायद उस स्थिति में वह खरगोश किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था. हैडलाइट्स की चकाचौंध की वजह से वह अपनी निर्दोष आँखें पूरी तरह खोल भी नहीं पा रहा था. कभी खोलता और कभी बंद करता. बड़ा ही सुन्दर और निरीह प्राणी था वह खरगोश. चालक सीट से आई एक कर्कश आवाज ने हमारा ध्यान भंग कर दिया. हमारे ड्राईवर साथी ने उस कुल्हाड़ी धारक साथी को आवाज दे कर उस खरगोश को पकड़ने का आदेश दिया. हम कुछ सोच पाते उस से पहले ही वह साथी जीप से मय कुल्हाड़ी कूद कर बाहर निकला और बिजली की गति से झपट कर उसने खरगोश को पकड़ लिया. अब ड्राईवर साथी ने कच्छी भाषा में उस मुस्लिम साथी को अगला आदेश दिया, “हलाल करी विंझ हलाल करी विंझ (हलाल कर दो हलाल कर दो).” मुस्लिम साथी ने तुरंत अपनी कुल्हाड़ी से उस निरीह और भोले प्राणी को हलाल कर उसके प्राण पखेरू हर लिए. यह दृश्य देख कर मुझे बहुत दुःख हुआ. उस प्राणी के दुखद अंत को देख कर मैं गहरे संताप में डूब गया.
रात को ही हम भुज पहुँच गए. हम में से एक साथी के घर में उस खरगोश के मांस को पकाया गया. एक छोटी-मोटी सी पार्टी जैसा माहोल बन गया था. मुझे और मेरे एक साथी को छोड़ कर सभी उपस्थित लोगों ने उस खरगोश के मांस का सेवन किया. लेकिन पता नहीं क्यों मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था. रह-रह कर मुझे उस खरगोश की भोली आँखें याद आ रही थीं. हालाँकि मैं भी मांसाहारी हूँ लेकिन मैंने कभी किसी खरगोश का मांस नहीं खाया था और आज भी नहीं खाता हूँ. मैं अनमना सा उस पार्टी में बैठा रहा. बाद में बड़े भारी मन से अपने घर आकर बिस्तर पर लेट गया. आज भी जब मैं उस घटना को याद करता हूँ तो मेरा हृदय विषाद से भर जाता है.
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