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मां की याद – शिखा खुराना

 

जिस दिन मैंने अपनी बेटी को जन्म दिया था, मां, उस दिन तुम्हारी बहुत याद आई।
दर्द की हर लहर में तुम्हारा स्पर्श ढूंढ़ा।
जब नर्स ने मेरी गोद में नन्हा सा जीवन रखा, उस पल तुम सामने खड़ी दिखीं । मुस्कुराती हुई, जैसे कह रही हो अब समझेगी तू, क्या होता है मां होना।
उस दिन जाना, कैसे एक स्त्री खुद को भुलाकर संतान का जीवन रचती है।
कैसे हर सांस, हर चिंता, हर आशीष संतान में सिमट जाती है।
जब पहली बार बेटी को चलना सिखाया, गिरते-पड़ते उठाया मां, तब भी तुम्हारी बहुत याद आई। वो थपकी, वो दुलार, वो बेफ़िक्र कर देने वाली झप्पी।

बेटी की आंखों में जब डर देखा,
और मैंने उसे सुरक्षित रहने का पाठ पढ़ाया। तब समझी कैसे तुमने हर कदम पर मुझे बचाया। बिना थके, बिना कुछ कहे।
जिस दिन मेरी बेटी को रजोधर्म शुरू हुआ, उस दिन दिल काँप उठा था मेरा।
कितनी सहजता से तुमने मुझे संभाला था मां। मुझे स्त्री होने की गरिमा सिखाई थी। बिना किसी झिझक के।प्यार से, आत्मबल के साथ।
और आज… आज जब मेरी बेटी की विदाई हुई, तो मां, तुम बहुत याद आईं।
सिंदूरी सजे दरवाज़े पर खड़ी मैं, बेटी को गले लगाकर टूट गई। उसकी हँसी के पीछे छुपे आंसुओं में, मैंने खुद को देखा।
जिस दिन मैं भी विदा हुई थी, और तुम चुपचाप रोई थीं। आज जाना,तुम्हारे दिल के किसी कोने में मैं भी ऐसे ही बसी थी,
जैसे आज मेरी बेटी मेरे दिल के एक कोने में रह गई है। आज तुम्हारी आँखों से देखा मां, मां होना क्या होता है।

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